Saturday 28 September 2019

देश को पूंजीवाद के पंजे से छुड़ाने के लिए भगत सिंह जैसे विचार की जरूरत


देश के जो हालात हैं। ऐसे में शहीद-ए-आजम भगत सिंह का याद आना लाजिमी है। जिस तरह से राजनीति का व्यवसायीकरण हुआ है। धंधेबाजों के हाथ में देश की बागडोर है। सियासत का मतलब बस एशोआराम, रूतबा और कारोबार रह गया है। देशभक्ति के नाम पर दिखाया है। युवा वर्ग देश व समाज के प्रति उदासीन और पथ से भटका हुआ है। किसान और जवान सत्ता के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द बनकर रह गये हैं। जमीनी मुद्दे देश से गायब हैं। रोजी-रोटी का देश पर बड़ा संकट होने के बावजूद दूर-दूर तक क्रांति की कोई चिंगारी नहीं दिखाई दे रही है। यदि कहीं से विरोध के स्वर उभरते भी हैं तो जाति और धर्म के नाम पर। या फिर कोई उस आवाज को इस्तेमाल कर रहा होता है। देश में विचारवान क्राङ्क्षतकारियों का घोर अभाव है। भले ही देश में लोकतंत्र स्थापित हुए सत्तर दशक बीत गये हों पर व्यवस्था के नाम पर अंग्रेजों के शासन से कोई खास सुधार देश के शासन में नहीं हुआ है। कहना गलत न होगा कि देश आजाद भी हुआ और समय समय पर सत्ता भी बदलती रही है पर व्यवस्था आज भी राजतंत्र और अंग्रेजी शासन वाली ही है। आज भी मु_ी भर लोगों ने देश की व्यवस्था पूरी तरह से से कब्जा रखी है। आम आदमी आज भी सिर पटक-पटक रह जा है पर उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। संविधान की रक्षा के लिए बना गये तंत्र राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट और पूंजीपतियों की कठपुतली नजर आ रहे हैं। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है और देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति से आगे बढ़ने को तैयार नहीं। इसका बड़ा कारण यह है कि देश में देशभक्ति का घोर अभाव है। त्याग, बलिदान और समर्पण जैसे शब्द तो समाज के शब्दकोष में दूर-दूर तक नहीं नजर नहीं ही नहीं आ रहे हैं।
     हमारे देश में जब देशभक्ति की बात की जाती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। भगत सिंह ऐसे नायक हुए हैं। जिन्होंने युवाओं में आजादी का जज्ब पैदा करने के लिए अपनी शहादत देने का संकल्प लिया और तमाम मनाने के बावजूद उन्होंने शहादत दी। उनका मानना था कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह को फांसी दिए जाने के बाद देश में इंकलाब आ गया और देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर ऐसे उतरा कि उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया।  यही कारण रहा कि आजादी की लड़ाई में भगत सिंह के समर्पण के सामने दूसरे क्राङ्क्षतकारी बौने नजर आते हैं। वह भगत सिंह थे जिन्होंने उस दौर में इतनी कम उम्र में पंडित जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की तुलना करते हुए एक लेख लिखा था। अंग्रेजों के साथ ही हमारी सरकारों ने भगत सिंह की छवि हमारे मन में ऐसी बना रखी हुई है कि उनका नाम आते ही लोगों के जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 23 वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही साथ ही समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930 में यह बात महसूस कर ली थी। उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी। गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक और प्रासंगिक ही लगते हैं। भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी, दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।
    बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा। उनका यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए 23 साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है। इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में तत्कालीन गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

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