Saturday, 28 September 2019

देश को पूंजीवाद के पंजे से छुड़ाने के लिए भगत सिंह जैसे विचार की जरूरत


देश के जो हालात हैं। ऐसे में शहीद-ए-आजम भगत सिंह का याद आना लाजिमी है। जिस तरह से राजनीति का व्यवसायीकरण हुआ है। धंधेबाजों के हाथ में देश की बागडोर है। सियासत का मतलब बस एशोआराम, रूतबा और कारोबार रह गया है। देशभक्ति के नाम पर दिखाया है। युवा वर्ग देश व समाज के प्रति उदासीन और पथ से भटका हुआ है। किसान और जवान सत्ता के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द बनकर रह गये हैं। जमीनी मुद्दे देश से गायब हैं। रोजी-रोटी का देश पर बड़ा संकट होने के बावजूद दूर-दूर तक क्रांति की कोई चिंगारी नहीं दिखाई दे रही है। यदि कहीं से विरोध के स्वर उभरते भी हैं तो जाति और धर्म के नाम पर। या फिर कोई उस आवाज को इस्तेमाल कर रहा होता है। देश में विचारवान क्राङ्क्षतकारियों का घोर अभाव है। भले ही देश में लोकतंत्र स्थापित हुए सत्तर दशक बीत गये हों पर व्यवस्था के नाम पर अंग्रेजों के शासन से कोई खास सुधार देश के शासन में नहीं हुआ है। कहना गलत न होगा कि देश आजाद भी हुआ और समय समय पर सत्ता भी बदलती रही है पर व्यवस्था आज भी राजतंत्र और अंग्रेजी शासन वाली ही है। आज भी मु_ी भर लोगों ने देश की व्यवस्था पूरी तरह से से कब्जा रखी है। आम आदमी आज भी सिर पटक-पटक रह जा है पर उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। संविधान की रक्षा के लिए बना गये तंत्र राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट और पूंजीपतियों की कठपुतली नजर आ रहे हैं। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है और देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति से आगे बढ़ने को तैयार नहीं। इसका बड़ा कारण यह है कि देश में देशभक्ति का घोर अभाव है। त्याग, बलिदान और समर्पण जैसे शब्द तो समाज के शब्दकोष में दूर-दूर तक नहीं नजर नहीं ही नहीं आ रहे हैं।
     हमारे देश में जब देशभक्ति की बात की जाती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। भगत सिंह ऐसे नायक हुए हैं। जिन्होंने युवाओं में आजादी का जज्ब पैदा करने के लिए अपनी शहादत देने का संकल्प लिया और तमाम मनाने के बावजूद उन्होंने शहादत दी। उनका मानना था कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह को फांसी दिए जाने के बाद देश में इंकलाब आ गया और देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर ऐसे उतरा कि उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया।  यही कारण रहा कि आजादी की लड़ाई में भगत सिंह के समर्पण के सामने दूसरे क्राङ्क्षतकारी बौने नजर आते हैं। वह भगत सिंह थे जिन्होंने उस दौर में इतनी कम उम्र में पंडित जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की तुलना करते हुए एक लेख लिखा था। अंग्रेजों के साथ ही हमारी सरकारों ने भगत सिंह की छवि हमारे मन में ऐसी बना रखी हुई है कि उनका नाम आते ही लोगों के जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 23 वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही साथ ही समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930 में यह बात महसूस कर ली थी। उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी। गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक और प्रासंगिक ही लगते हैं। भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी, दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।
    बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा। उनका यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए 23 साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है। इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में तत्कालीन गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Tuesday, 30 July 2019

ऐसे तो हर आंदोलनकारी को देशद्रोही बना देंगे ये लोग



लंबे समय से अराजकता एजेंडे पर काम कर रहे संघ मानसिकता के लोग लगातार अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं। संघियों के स्थापित होने के पीछे समाजवादियों का परिवारवाद, वंशवाद और पूंजीवाद में ढलना, वामपंथियों से अपनी विचारधारा से भटकना औेर कांग्रेस का नैतिक पतन होना रहा है। 
     वैसे तो कांग्रेस भी अपने करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी पर भाजपा की अगुआई में चल रही मोदी सरकार ने तो सभी हदें ही पार कर दी हैं। चाहे संवैधानिक संस्थाएं हों, कार्यपालिका हो, मीङिया हो सबको अपना बंधुआ बनाने में उतारू है। यह सरकार काफी हद तक अपने मकसद में कामयाब भी हो रही है। समाज का लगातार हो रहा  नैतिक पतन मोदी सरकार को के संघ के एजेंडे को लागू करने में काफी मदद कर रहा है। देश में भाईचारा, रोजी-रोटी, खेतबाड़ी, मान-सम्मान और अधिकार जैसे शब्द तो जैसे इतिहास बन चुके प्रतीत हो रहे हैं। धर्म के नाम पर देश में जो आडंबर चल रहा है वह न केवल देश औेर समाज के लिए घातक साबित हो रहा हेै बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए  तबाही का मंजर ला रहा है।
जयश्रीराम के नारे को लेकर अब तक तो सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर ही कुछ शरारती तत्वों द्वारा उत्पात मचाने की खबरें सुनने को मिलती हैं। पर झारखंड विधानसभा में सीपी सिंह की जो उत्दंदडता देखने को मिली उससे तो यही लग रहा है कि केंद्र व राज्य सरकार में बैठे भाजपा के प्रतिनिधि भी इन सब मामलों में सक्रिय हैं।
     चिंता की बात तो यह है जिस न्यायपालिका पर इस तरह से मामलों में न्याय पाने की उम्मीद होती थी अब उसका भी इस्तेमाल किया जाने लगा है।  स्थिति यह है कि सत्ता पक्ष के समर्थक सत्ता के खिलाफ न कोई आंदोलन बर्दाश्त कर पा रहे हैं औेर न ही देश को चलाने वाले जिम्मेदार लोगों से किसी तरह का पत्राचार।
      उन्मादी भीड़ की हिंसा को लेकर फिल्मी कलाकारों और 49 बुद्धिजीवियों ने  मॉब लिंचिंग को लेकर  प्रधानमंत्री को पत्र क्या लिख दिया कि बिहार के मुजफ़्फरपुर के मुख्यन्यायिक दंडाधिकारी सूर्य कांत तिवारी की अदालत में अधिवक्ता सुधीर कुमार ओझा ने अभिनेत्री अर्पणा सेन, सौमित्र चटर्जी, श्याम बेनेगल समेत 49 फ़िल्म कलाकारों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा ही दर्ज करा दिया। उनको लगता है कि इन लोगों के प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र से देश की छवि विदेशों में खराब हुई है।  उनको इस पत्र में अलगावादियों से मिलकर देश को विखंडित करने का काम नजर आ रहा है। हद तो यह हो गई कि कोर्ट ने भी मामले को स्वीकार कर लिया है। जबकि अक्सर देखा जाता हेै कि कोर्ट महत्वपूर्ण मामलों से संबंधित भी याचिका को नामंजूर कर देता है।
     याचिकाकर्ता ने इस मामले में बालीवुड के कुछ कलकारों को ढाल के रूप में इस्तेमाल किया है। याचिकाकर्ता ने अभिनेत्री कंगना रनौत, मधुर भंडारकर और विवेक अग्निहोत्री को इस केस में गवाह के रूप में नामजद किया है। दरअसल कंगना रनौत, मधुर भंडारकर और विवेक अग्निहोत्री समेत 62 लोगों ने 49 हस्तियों द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र लिखे जाने के खिलाफ प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर विरोध दर्ज कराया था।
इन महाशय को यह मालुम नहीं है कि विदेश में बैठे लोगों को मॉब लिंचिंग की घटनाओं के बारे में भी पता चलता है। विदेशियों को यह भी पता है कि देश में तरह से रोजी-रोटी का संकट आन पड़ा है। किस तरह से सत्ता में बैठे लोग मां-बहनों की अस्मत से खेल रहे हैं और जब वे इस अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती हैं तो उन्हें मरवा दिया जाता है या फिर मरवाने का प्रयास होता है। किस तरह से लोग अपना जमीर बेचकर सत्ता से चिपकने के लिए देश के संविधान से खिलवाड़ कर रहे हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को किस तरह से तहस-नहस करने पर तुले हैं। किसी तरह से महात्मा गांधी को गालियां दी जा रही हैं। किस तरह से पूरे विश्व में भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को निखारने वाले पंङित जवाहर लाल नेहरू को खलनायक बना दिया गया है। किस तरह से महात्मा गांधी के हत्यारे को एक नायक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। इन मामलों में देश की छवि खराब नहीं हो रही है। 
     इन महाशय को जानकारी होनी चाहिए कि जिस सेना का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना सीना चौड़ा कर लेते हैं। उस सेना के ही 100 से अधिक रिटायर्ड सैनिकों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर दलितों और मुसलमानों के खिलाफ हो रही हिंसा की निंदा की है। इन महाशय को इन सैनिकों के खिलाफ भी देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करा देना चाहिए था।
इन पूर्व सैनिकों का कहना था कि अहसमति को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने मीडिया संस्थानों, व्यक्तियों, सिविल सोसाइटी ग्रुप, विश्वविद्यालयों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के बोलने की आज़ादी पर हो रहे हमले और उन्हें राष्ट्रविरोधी करार दिये जाने की भी निंदा की है। मतलब इन सबकी आवाज को दबाने का प्रयास हो रहा है।
यदि मॉब लिंचिंग मामले पर बुद्धिजीवियों द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र लिखने पर उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कराया जा सकता है औेर कोर्ट उस सुनवाई को सुनने को तैयार हो जाता है। तो यह समझ लेना चाहिए कि ये लोग मोदी सरकार  के खिलाफ कोई भी आंदोलन नहीं बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे।
    तो यह माना जाए कि यदि किसान, मजदूर, नौजवान अपने हक के लिए आवाज उठाएगा तो उनके खिलाफ भी देशद्रोह के मुकदमे दर्ज किये जाने लगेंगे। जो भाजपा इमरजेंसी को लेकर हायतौबा करती है। उसके शासनकाल में सरकार की खामियों को गिनाने को भी देशद्रोह मान लिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि ओझा मात्र एक व्यक्ति हैं, जिन्होंने इस तरह के मामले में देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कराया है। सत्ता में बैठे लोग भी इस तरह की व्यवस्था करने में लगे हैं कि उनकी मनमानी के खिलाफ कोई आवाज न उठे। अब तो सरकार ऐसा कानून बनाने जा रही है जिसमें किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने में कोर्ट की भी जरूरत नहीं होगी। सरकार जिसे चाहेगी आतंकवादी बना देगी। मतलब किसी भी तरह से लोगों को डराकर रखना है। यदि मुंह खोला तो तैयार रहो आतंकवादी बनने के लिए।
अंग्रेजी हुकुमत में भी इस तरह से जनता की आवाज को दबाने का दुस्साहस इस हद तक नहीं हुआ था। उनके राज में भी व्यक्ति को अपनी बात कोर्ट में रखने का अधिकार था। मोदी सरकार तो जनता से कोर्ट में अपनी बात रखने का अधिकार भी छीनने की तैयारी में है।  
    मोदी सरकार का यह हथकंडा काफी कारगर भी साबित हो रहा है। मोदी ने विपक्ष के स्थापित अधिकतर नेताओं को डराकर चुप करा दिया है। पत्रकारों, लेखकों और फिल्म निर्मार्ताओं को इस तरह से अपने समर्थकों से चुप कराने का प्रयास किया जा रहा है। 
इस माहौल में यह तो क्लीयर हो गया है कि सत्ता में बैठे इन अराजक लोगों के खिलाफ अब जीवट नेतृत्व ही टिकेगा। इस सरकार से टकराने के लिए आजादी की लड़ाई जैसे जज्बा, जुनून और जूझारूप रखे आंदोलनकारी ही टिक पाएंगे।  एशोआराम से दूर धूप में तपा नेतृत्व ही अब मोदी सरकार से टकराने में सफल होगा। कमजोर, निकम्मे औेर विलासिता में डूबे विपक्ष के बल पर अब मोदी सरकार की इस अराजकता से नहीं लड़ा जा सकता है। देश में एक दमदार नेतृत्व तैयार करना ही होगा।


Saturday, 13 July 2019

पहले संसद को तो भ्रष्टाचार मुक्त कर लो मोदी जी


लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्था है कि देश की दशा और दिशा संसद से तय होती है। इसका मतलब है कि देश के उत्थान के लिए संसद में अच्छी छवि के सांसद पहुंचने चाहिए। इन लोगों के क्रियाकलाप ऐसे हों जिनसे जनता प्रेरणा ले। क्योंकि इन लोगों को जनता चुनकर भेजती है तो इनका हर कदम जनता के भले के लिए ही उठना चाहिए। क्या संसद में ऐसा हो रहा है। क्या संसद में जनता की लड़ाई लड़ने वाले सांसद पहुंच रहे हैं। आम लोगों के मुंह से तो यही निकलेगा कि नहीं। तो फिर ये सांसद कैसे जनता के लिए काम करेंगी और कैसे मोदी सरकार कैसे देश और समाज का भला करेगी ?
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में अब तक की कार्रवाई से तो यही देखने आ रहा है कि यह सरकार भी दूसरी सरकारों की तरह से ही संवैधानिक संस्थाओं को देशहित में न लगाकर इनका इस्तेमाल अपने विरोधियों से निपटने के लिए कर रहे हैं। सीबीआई और ईडी जगह-जगह छापेमारी तो कर रही है पर इन छापेमारी में निष्पक्षता कम आरएसएस और भाजपा नेताओं के एजेंडे के खिलाफ खड़े होने वाले लोग ज्यादा हैं।  राजनीतिक दलों में आरएसएस और भाजपा का सबसे अधिक मुखर चेहरा लालू प्रसाद तो जेल में हैं ही। उनका परिवार भी मोदी सरकार के टारगेट  पर है। मुलायम सिंह यादव ने मोदी सरकार के सामने आत्मसर्मपण कर दिया है तो उन्हें आय से अधिक संपत्ति के मामले में क्लीन चिट दिलवा दी गई। यह जगजाहिर हो चुका है संवैधानिक संस्थाएं इतनी कमजोर और केंद्र सरकार इतनी ताकतवर होने लगी हैं कि प्रधानमंत्रीऔर गृहमंत्री अपने हिसाब से इन संस्थाओं का इस्तेमाल करते हैं।
ऐसे ही मौजूद गृहमंत्री अमित शाह के केस से संबंधित जस्टिस लोया की हत्या के मामले में पैरवी करने वाली सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता इंदिरा जय सिंह के साथ किया जा रहा है। उनके और उनके पति आनंद ग्रोवर के निवास और ठिकानों पर सीबीआई छापा मरवाकर। बुलंद शहर के डीएम अभय सिंह के यहां भले ही मौजूदा समय में 47 लाख रुपये बरामद हुए हों पर उनके यहां सीबीआई छापामारी का मकसद अखिलेश सरकार में खनन मामले में उनके फतेहपुर के डीएम रहते हुए अनियमितता पाया जाना था। हरियाणा में भी यही हो रहा है विधानसभा चुनाव के करीब आते ही चौटाला परिवार पर शिकंजा कसा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि ये लोग कोई दूध के धूले हुए हैं पर सरकार के इस कदम से देश और समाज का भला कम और भाजपा का ज्यादा दिखाई देता है।
यदि मोदी वास्तव में ही देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए गंभीर है तो इसकी शुरुआत संसद से होनी चाहिए। वैसे भी मौजूदा प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने 2014 के आम चुनाव प्रचार में जनता से संसद को दागी मुक्त करने का वादा किया था।
मोदी जिस संसद का नेतृत्व कर रहे हैं उसके 43 फीसद सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। मतलब 542 सांसदों में से 233 सांसद दागी हैं। इनमें से 29 फीसद यानी कि 159 सांसदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। यदि स्थिति तब है जब मोदी के पहले कार्यकाल में ही देश को भ्रष्टाचार मुक्त कहते हुए अच्छे दिन आ गये कहते नहीं थक रहे थे। जो लोग मनमोहन सरकार में गठित संसद को ज्यादा दागी मानते हैं वह समझ लें कि चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी शोध संस्था 'एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक अलायंसÓ (एडीआर) की लोकसभा चुनाव परिणाम पर जो रिपोर्ट जारी की गई उसके अनुसार आपराधिक सांसदों पर मुकदमों के मामलों में 2009 की संसद से 44 प्रतिशत इजाफा हुआ है।
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुकदमे वाले 162 सांसद यानी कि फीसद चुनकर आये थे, जबकि 2014 के चुनाव में ऐसे सांसदों की संख्या 185 यानी कि 34 प्रतिशत हो गई। एडीआर ने नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर बताया कि इनमें से 159 सांसदों यानी कि 29 प्रतिशत के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित थे। पिछली लोकसभा में गंभीर आपराधिक मामलों के मुकदमों में घिरे सदस्यों की संख्या 112 यानी कि 21 प्रतिशत थी, वहीं 2009 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 76 यानी कि 14 प्रतिशत थी।
मतलब तीन चुनावों में गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है। 
जो भाजपा साफ सुथरी राजनीति करने का दावा करती घूम रही है आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सर्वाधिक सांसद इसी पार्टी के टिकट पर ही चुनकर आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार भाजपा के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह समेत 116 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। वहीं, कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हैं। इनके अलावा सत्तारूढ़ राजग के घटक दल लोजपा के सभी छह निर्वाचित सदस्यों, बसपा के आधे (10 में से पांच), जदयू के 16 में से 13, तृणमूल कांग्रेस के 22 में से नौ और माकपा के तीन में से दो सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। 
इसे देश की विडंबना ही कहा जाएगा कि देश के लिए जनता से परेशानी झेलने के लिए कहा जाता रहा और 16वीं लोकसभा में सांसदों की संपत्ति पांच साल में 41 फीसदी तक बढ़ गई।
वैसे तो लगभग सभी दल देश से भ्रष्टाचार मिटाने का दंभ भरते हैं पर जमीनी हकीकत यह है कि ये दल अधिकतर टिकट भी भ्रष्ट और आपराधिक छवि के लोगों को देते हैं। गत आम चुनाव में एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा चुनाव लड़ रहे 338 में से 335 सांसदों की औसत संपत्ति 23.65 करोड़ रुपये थी। 2014 में यह आंकड़ा 16.79 करोड़ रुपये था। यानी पांच साल में सांसदों की औसत संपत्ति 6.86 करोड़ रुपये बढ़ा था। 17वीं लोकसभा में भी अधिकतर इनमें से ही सांसद चुनकर आये हैं। इस तरह के मामलों में दलों की ओर से यही कहा जाता है कि इन सांसदों को जनता ही तो चुनकर भेजती है। अरे भाई चुनाव इतना महंगा कर दिया गया है कि ईमानदार आदमी तो चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। यदि कोई व्यक्ति हिम्मत कर भी जाता है तो ये दल उस पर तरह-तरह का दबाव बनाकर उसका नाम वापस करा देत हैं या फिर उसका नामांकन ही कैंसिल करा दिया जाता है।
स्थिति यह है कि एडीआर ने 17वीं लोकसभा चुनाव के 8,049 में से 7928 उम्मीदवारों के हलफनामों का विश्लेषण किया किया था। इनमें 29 फीसद की संपत्ति एक करोड़ से ज्यादा है। इन उम्मीदवारों में सत्तारूढ़ भाजपा के 79 फीसद, कांग्रेस के 71 फीसद उम्मीदवार करोड़पति थे। बसपा के 17 और सपा के आठ प्रत्याशी करोड़पति थे।
लोकसभा चुनाव में 19 फीसद यानी 1500 दागी उम्मीदवार मैदान में थे। 2014 में 17 फीसद यानी 1404 प्रत्याशियों ने अपने ऊपर अपराधिक मामले दर्ज होने की जानकारी दी थी।  1070 उम्मीदवारों पर दुष्कर्म, हत्या, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर केस दर्ज थे। 2014 में 8205 उम्मीदवारों में 908 में यानी 11फीसद पर ऐसे केस थे। भाजपा ने 175 तो कांग्रेस ने 164 दागी उम्मीदवार उतारे थे। बसपा ने 85 दागियों को टिकट दिया था। 
संसद में सांसदों के भ्रष्टाचार की हालत यह है कि कई बार पैसे लेकर सवाल पूछने के आरोप सांसदों पर लग चुके हैं। 2005 दिसंबर में एक टेलीविज़न चैनल ने विभिन्न दलों के 11 सांसदों को घूस लेते हुए कैमरे पर क़ैद किया था। इन पर आरोप था कि ये सांसद सवाल पूछने के लि, रिश्वत ले रहे थे। हालांकि इसके बाद दोनों सदनों से इन सांसदों को बर्खास्त कर दिया गया था। इन बर्खास्त सांसदों में से 9 ने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। इनमें में छह सांसद भाजपा के थे। एक आरजेडी, एक बीएसपी का और एक कांग्रेस का था।
मोदी सरकार में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का ढिंढेरा लंबे समय से पीटा जाता रहा है कि यह भी जमीनी सच्चाई है कि एशिया महाद्वीप में भ्रष्टाचार के मामले में भारत प्रथम स्थान पर है। एक सर्वे में पाया गया है कि भारत में रिश्वतखोरी की दर 69 प्रतिशत है। फोर्ब्स द्वारा किए गए 18 महीने लंबे सर्वे में भारत को टॉप 5 देशों में पहला स्थान दिया गया है। यह सर्वे कोई मनमोहन सरकार के समय का नहीं है बल्कि मार्च, 2017 में प्रकाशित किया था। मतलब मोदी के पहले कार्यकाल में। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान का स्थान चौथा है।
दिलचस्प बात तो यह है कि राजनीति को सुधारने आये अरविंद केजरीवाल तो राजनीति के गिरते स्तर के मामले में दूसरे दलों से भी आगे निकल गये। बताया यह जाता है कि उन्होंने राज्यसभा में कुमार विश्वास और आतुतोष जैसे योग्य नेताओं को दरकिनार कर स्वजातीय बंधुओं को पैसे लेकर राज्यसभा में भेज दिया।
जिस कांग्रेस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उन्होंने दिल्ली की सत्ता कब्जाई गत लोकसभा चुनाव में उस कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए वह कांग्रेस के पीछे-पीछे घूमते रहे। ये वही केजरीवाल है जिन्होंने 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी, सुशील कुमार शिंदे, प्रफुल्ल पटेल, वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद, मुलायम सिंह यादव, श्री प्रकाश जयसवाल, जगन मोहन रेड्डी, अनुराग ठाकुर, कपिल सिब्बल, शरद पवार, पी चिदंबरम, कणिमोड़ी, सुरेश कलमाड़ी, नवीन जिंदल, ए राजा, पवन कुमार बंसल, नितिन गडकरी, बीएस येदियुरप्पा, अनंत कुमार, कुमार स्वामी, अलागिरी, जीके वासन, मायावती, अनू टंडन, फारुख अब्दुल्ला को भ्रष्ट सांसद बताया था। इनमें से अधिकतर मौजूद सांसद हैं।