Saturday, 27 October 2018

कमजोर की आवाज बनकर छा जाओ लोगों के दिलों पर


जो साथी फाइट फॉर राइट से जुड़े हैं, यह  समझ लें कि इस संगठन का गठन व्यवस्था परिवर्तन के लिए किया गया है। देश में चल रही वोटबैंक, लूटखसोट की राजनीति को बदलने के लिए किया गया है। जिन लोगों में समझौतावादी प्रवत्ति घर कर गई उसे दूर करने के लिए किया गया है। देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का माद्दा रखने वाले युवाओं के लिए किया गया है। जो लोग रोज-रोज इस व्यवस्था पर रोते रहते हैं। इससे लड़ना चाहते हैं। अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। तो आइये फाइट फॉर राइट में आपका स्वागत है।
       मेरा सपना है कि फाइट फॉर राइट देश में कमजोर की आवाज बन जाये। जहां अन्याय हो। फाइट फॉर राइट के नारे गूंजने लगें । फाइट फॉर राइट शब्द भ्र्ष्टाचारियों और देश के लुटेरों के लिए एक भय बन जाये। अच्छे लोगों के लिए सहारा बन जाये। खुशी की बात यह है कि ईमानदार और जुझारू लोग हमारे संगठन से जुड़ रहे हैं। लगभग पूरे देश में फाइट फॉर राइट अपनी अलग पहचान बना रहा है।
       साथियों  आज की तारीख में मीडिया अच्छे काम को कम तवज्जो दे रहा है। ऐसे में हमें सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी लड़ाई को अंजाम देना है। अन्याय के खिलाफ लड़ना है। सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, डा. राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश जैसे नायकों का अध्य्यन कीजिये। महाभारत में कर्ण का संघर्ष देखिये। जो व्यवस्था से लड़े हैं। उन्होंने ही अपनी पहचान बनाई है। कुछ कर जाओगे तो दुनिया याद करेगी। ऐसा कुछ करो कि देश की व्यवस्था अच्छे लोगों के हाथों में हो। छोटी मोटी बातों में न उलझ कर बड़ा लक्ष्य बनाइये और आगे बढ़िए। बिना रीढ़ के लोगों के पीछे भागने से कुछ नहीं मिलेगा। अपना वजूद खुद बनाइये। जो एक ईमानदार और जुझारू व्यक्ति देश और समाज के लिए करना चाहता है। वह सब कुछ फाइट फॉर राइट संगठन करने का मौका दे रहा है। तो बन जाइये कमजोर की आवाज और छा जाइये  लोगों के दिलों पर। 

Sunday, 21 October 2018


आजाद हिंद फौज की 75वीं जयंती:लाल किले पर तिरंगा फहराकर मोदी करेंगे नई परिपाटी की शुरुआत

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लम्बे समय तक आरएसएस के प्रचारक रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 अक्टूबर को लाल किले से तिरंगा फहरा कर एक नई परिपाटी को जन्म देने वाले हैं। मोदी सरकार इस दिन सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली आजाद हिन्द सरकार की 75 वीं जयंती मना रही है। पीएम मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ एक वीडियो संवाद के माध्यम से खुद इस बात की घोषणा की है। इस मौके पर लालकिले में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन रखा गया है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत सरकार के मंत्रियों, रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों के साथ ही आजाद हिन्द फौज से जुड़े लोगों को बुलाने की तैयारी है।
इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक संग्रहालय का उद्घाटन करने की भी योजना है। इस संग्रहालय में आजाद हिन्द फौज और नेताजी से जुड़े सामान को रखे जाने की बात की जा रही है। बताया जा रहा है कि मोदी 30 दिसंबर को अंडमान और निकोबार के पोर्ट ब्लेयर जा रहे हैं। यह वह जगह है जहां सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के बल पर अंडमान निकोबार को अपने कब्जे कर इसी दिन 1943 में आजाद जमीन पर झंडा फहराया था। यह झंडा आजाद हिन्द फौज का था। मोदी की उस स्थान पर 150 फुट ऊंचा झंडा फहराने की योजना है। वह नेताजी की याद में एक स्मारक डाक टिकट और सिक्का जारी करने जा रहे हैं।  साथ ही सेलुलर जेल भी जाने की ख़बरें मिल रही हैं। 
यह अपने आप में दिलचस्प है कि मोदी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज की बात कर रहे हैं, जिसकी विचारधारा और संगठन का इनसे दूर दूर तक कोई नाता नहीं है। भारत छोड़ो आंदोलन में गांधी के रास्ते से असहमत होने के बावजूद सुभाष चंद्र बोस लड़ाई में शामिल थे। देश से बाहर जाकर भी वह अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अपने सैन्य अभियान की तैयारी में लगे थे। उस दौर में लगभग हर धारा से जुड़े लोग अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे। सोशलिस्टों के साथ ही तमाम कम्युनिस्ट नेता भी गिरफ़्तार हुए थे। यदि कहीं कोई नहीं था तो बस आरएसएस से जुड़े लोग। इसके लोगों ने तो अंग्रेजों के राज को ही स्वाभाविक बताना शुरू कर दिया था। क्रांतिकारियों की कार्यशैली में ये लोग खामियां निकाल रहे थे। सुभाष चंद्र बोस जैसे नायक कभी उनके आदर्श नहीं रहे। मोदी आज जिस आजादी की बात कर रहे हैं। वह सुभाष चंद्र बोस ने देशभक्तों के बलबूते पर हासिल की थी न कि अंग्रेजों की पैरोकारी से। 
नेताजी ने आजाद हिन्द फौज भले ही विदेश में जाकर बनाई लेकिन उसका पूरा उद्देश्य अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराना था। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने आजाद हिन्द सेना के 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए उन्होंने "दिल्ली चलो!" का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी।
जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। मार्च 1944 में आजाद हिन्द फ़ौज के दो डिवीजन मोर्चे पर थे। पहली डिवीजन में चार गुरिल्ला बटालियन थी। यह अराकान के मोर्चे पर अंग्रेजी सेना से मोर्चा ले रही थी। 
इसमें से एक बटालियन ने वेस्ट अफ्रीकन ब्रिटिश डिवीजन की घेराबंदी को तोड़ते हुए मोवडोक पर कब्ज़ा कर लिया। वहीं बहादुर ग्रुप की एक यूनिट जिसका नेतृत्व कर्नल शौकत अली कर रहे थे, मणिपुर के मोइरंग पहुंच गई। 19 अप्रैल की सुबह कर्नल शौकत अली ने मोइरंग में झंडा फहरा दिया।  
इधर, जापान की 31 वीं डिविजन के साथ कर्नल शाहनवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फ़ौज की दो बटालियनों ने चिंदविक नदी पार की। यहां से ये लोग इम्फाल और कोहिमा की ओर बढ़े। इस ऑपरेशन के दौरान जापानी सेना के कमांडर और भारतीय अधिकारियों के बीच कहासुनी ने स्थिति को बिगाड़ दिया। ऐसे विपरीत हालात में मौसम ने भी आजाद हिन्द फ़ौज का साथ छोड़ दिया। दरअसल मानसून हर साल के मुकाबले इस साल जल्दी शुरू हो गया था। भारी बारिश ने पहाड़ी सड़कों को कीचड़ के दरिया में तब्दील कर दिया। जापानी सेना इस अभियान से पीछे हटने लगी। ऐसे में आजाद हिन्द फ़ौज का आत्मविश्वास डिगने लगा। मई के अंत तक आजाद हिन्द फ़ौज की सभी बटालियनें वापस बेस कैंप की ओर लौटने लगीं। 
मार्च में जो आजाद हिन्द फ़ौज आक्रामक तरीके से भारतीय क्षेत्रों में आक्रमण कर रही थी। अगस्त आते-आते बर्मा में अपने आधार क्षेत्र को बचाने में लग गई। इम्पीरियल सेना के तोपखानों और लड़ाकू विमानों ने जंग का रुख मोड़ दिया था। कोहिमा से वापसी के बाद भारत को आजाद कराने का सपना लगभग दफ़न हो चुका था। जापान की स्थिति और भी ख़राब थी। इसलिए उनसे कोई उम्मीद करना बेकार था।
इस हताशा भरे दौर में भी सुभाष चंद्र बोस ने रेडियो रंगून के जरिए गांधी जी और देश को संबोधित किया। जिस गांधी की लंगोटी पर कटाक्ष करते हुए मोदी सुभाष चंद्र बोस के संघर्ष को भुनाने का प्रयास कर रहे हैं, उसको राष्ट्रपिता का संबोधन सबसे पहले सुभाष चंद्र बोस ने ही दिया था। अगले एक साल तक आजाद हिन्द फ़ौज ब्रिटिश इम्पीरियल आर्मी के किसी भी मोर्चे पर सीधी लड़ाई से बचने की कोशिश करती रही। मांडला और माउन्ट पोपा में बुरी तरह मात खाने के बाद आजाद हिन्द फ़ौज को रंगून की तरफ पीछे हटना पड़ा। सैनिकों के बीच हताशा की भावना थी।
अप्रैल 1945 तक आजाद हिन्द फ़ौज के कई सैनिक बढ़ती हुई ब्रिटिश आर्मी के सामने हथियार डालने लगे। अप्रैल के अंत में पहली डिवीजन के 6000 सैनिकों को छोड़ कर बाकी सभी सैनिकों ने बर्मा छोड़ दिया और आजाद हिन्द फौज अपने पुराने केंद्र सिंगापुर लौट गई। इन छह हजार सैनिकों को बिर्टिश आर्मी के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस तरह देश से अपेक्षित सहयोग न मिलने की वजह से जुलाई तक “दिल्ली चलो” का नारा एक असफल प्रयोग और सैनिक एडवेंचर के तौर पर इतिहास में दर्ज होकर रह गया। 
इधर, जब जून 1945 में कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को जेल से छोड़ा जा रहा था। तभी आजाद हिन्द फ़ौज के 11 हजार सैनिक युद्ध बंदी के तौर पर उस दिल्ली पहुंचे, जिसे फतह करने के लिए इन लोगों ने कसमें खाई थीं। यहां भारतीयों ने इनका स्वागत नायकों की तरह किया। भारत का कोई ऐसा राजनीतिक दल या विचारधारा नहीं थी जो इन लोगों के पक्ष में खड़ा नहीं था। आरएसएस और उसके लोग यहां से भी नदारद थे। अब उसके झंडाबरदार मोदी जिस लालकिले से तिरंगा फहराने की बात कर रहे हैं उसी लालकिले में इन युद्धबंदियों पर मुक़दमा चलाया गया।
भूलाभाई देसाई के नेतृत्व में तेजबहादुर सप्रू, आसफ अली और काटजू की टीम इस मुकदमे में इन सैनिकों की पैरवी कर रही थी। सुभाष के मामले में आरएसएस और मोदी जिन पंडित जवाहर लाल नेहरू की आलोचना करते नहीं थकते हैं वही नेहरू मुकदमे के पहले दिन वकालत की पढ़ाई के करीब तीस साल बाद वकील की फिर से वर्दी पहनते हैं और सुभाष के पक्ष में ट्रायल में खड़े हो जाते हैं। उस समय नेहरू को सुभाष और उनके सैनिकों की पैरवी करते देख देश के लोग खुशी से झूम उठे थे। और नारा लगा था -हिन्दुस्तान की एक ही आवाज, सुभाष, ढिल्लो और शाहनवाज ।
उसी समय नेताजी से जुड़े विमान हादसे की खबर आ गई और इन सैनिकों पर चल रहे मुकदमे के प्रति जनता की सहानुभूति भी जुड़ गई। यहां तक कि ब्रिटिश सेना में काम कर रहे भारतीय सैनिक भी इस मामले में आजाद हिन्द फ़ौज के साथ खड़े हो गए।  कानपुर, कोहाट, इलाहाबाद, बमरौली की एयरफोर्स इकाइयों ने इन सैनिकों को आर्थिक सहयोग भेजा। पंजाब और संयुक्त प्रान्त में आजाद हिन्द फ़ौज के पक्ष में हो रही जनसभाओं में ब्रिटिश इम्पीरियल आर्मी के लिए काम रहे भारतीय सैनिक भी वर्दी में जाते दिखे।
यह मुकदमा आजादी की लड़ाई को कितना मजबूत कर गया था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के गवर्नर कनिंघम ने तत्कालीन वायसरॉय को लिखा कि राज के लिए अब तक वफादार रहे लोग इस मुदकमे की वजह से ब्रिटिश ताज के खिलाफ होते जा रहे हैं। ब्रिटिश इम्पीरियल आर्मी के कमांडर इन चीफ ने अपने दस्तावेजों में दर्ज किया कि सौ फीसदी भारतीय अधिकारी और ज्यादातर भारतीय सैनिकों की सहानुभूति आजाद हिन्द फ़ौज की तरफ है।
नवम्बर 1945 को लाल किले में शुरू हुआ यह मुकदमा मई 1946 में खत्म हुआ। फैसले में कथित आरोपी तीन अफसरों कर्नल शाहनवाज, प्रेम सहगल और गुरुबक्श सिंह ढिल्लो को देश निकाले की सजा दी गई। हालांकि इस पर कभी अमल नहीं हुआ। बाकी के सैनिकों पर जुर्माना लगा और तीन महीने के भीतर उन्हें छोड़ दिया गया। जो लालकिला सुभाष चंद्र के साम्प्रदायिक सौहार्द का गवाह बना। जिस लालकिले की देखभाल के लिए मोदी सरकार के पास पैसे नहीं थे। और उसकी देखरेख के लिए उसे कारपोरेट घराने डालमिया को दे दिया, उसी लालकिले में प्रधानमंत्री मोदी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर राजनीति करने जा रहे हैं। जिन लोगों का दूर-दूर तक आजादी की लड़ाई से कोई वास्ता नहीं रहा वे लोग अब आजादी की विरासत के वारिस बन गए हैं। 
सुभाष चंद्र बोस की जिस आजाद हिन्द फौज की सरकार की वर्षगांठ मोदी सरकार मना रही है, उनके संघर्ष में न कभी आरएसएस शामिल रहा और न ही कभी क्रियाकलापों को सराहा। सुभाष चंद्र बोस ने तो देश के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया था पर आरएसएस हिन्दू राष्ट्र का राग अलापता रहा।

Friday, 19 October 2018

हरियाणा में एक बार फिर छिड़ी चौधरी देवीलाल की राजनीतिक विरासत को लेकर जंग, चाचा-भतीजे आमने-सामने


देश के समाजवादियों की राजनीतिक विरासत अब नई पीढ़ी के हाथ में आ रही है। चौधरी चरण सिंह की विरासत उनके पौत्र जयंत सिंह संभाल रहे हैं तो मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक कारवां को उनके बड़े पुत्र अखिलेश यादव आगे ले जा रहे हैं। तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं उनके छोटे पुत्र नीरज शेखर। लालू प्रसाद ने अपनी कमान अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को सौंप दी है। तो चिराग पासवान अपने पिता रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा के नये चिराग बन गए हैं। देवगौड़ा ने कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनवाकर अपनी सालों की राजनीतिक पूंजी अपने बेटे एचडी कुमार स्वामी को सौंप दी। 

ऐसा नहीं कि सारे वारिस स्थापित ही हो गए हैं या फिर उनके पैर राजनीति की जमीन में पूरी तरह से जम ही गए हैं। इनमें से कुछ जगहों पर विरासत को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। इन्हीं में से एक है हरियाणा में चौधरी देवीलाल की विरासत। उनके पुत्र ओम प्रकाश चौटाला के एक दौर तक राजनीतिक भूमिका निभाने के बाद अब कुनबा संकटग्रस्त हो गया है।

ये संकट हरियाणा में चौधरी देवीलाल की जयंती के मौके पर गोहाना में हुई रैली में खुलकर सामने आ गया। इस मौके पर पार्टी की कमान संभाल रहे अभय चौटाला की जमकर हूटिंग हुई। खास बात यह है कि ये सब कुछ पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश चौटाला की मौजूदगी में हो रहा था। दरअसल ऐसा हुआ कि अभय चौटाला के भाषण देने के लिए खड़े होने के साथ ही मंच के सामने बैठे दुष्यंत चौटाला के समर्थकों ने नारेबाजी और हूटिंग शुरू कर दी।

मंच से रोके जाने और समझाए जाने के बाद भी वो शांत नहीं हुए। बताया जाता है कि जब पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश चौटाला खड़े हुए तब भी ये सिलसिला जारी रहा। जिस पर उन्होंने जबर्दस्त नाराजगी जाहिर की। और चेतावनी भरे लहजे में उन्होंने यहां तक कह डाला कि इसके पीछे कौन है वो उसे समझ रहे हैं और उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।  

रैली में चौटाला की नाराजगी की गाज दुष्यंत सिंह उनके भाई दिग्विजय सिंह पर गिरी। और दोनों को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित कर दिया गया। इस कार्रवाई के बाद अपनी गलती के लिए माफी मांगने या फिर किसी दूसरे तरीके से अपने दादा की सहानुभूति हासिल करने की जगह दुष्यंत ने बगावती तेवर अपना लिया है। और उन्होंने अपने परदादा चौधरी देवीलाल के नाम पर बने जननायक सेवादल संगठन को एक बार फिर सक्रिय कर दिया।

दूसरी तरफ अभय चौटाला की कोशिश संगठन पर कब्जा करने की है। इस तरह से चाचा और भतीजे के बीच चौधरी देवीलाल की राजनीतिक विरासत पर कब्जे की जंग शुरू हो गयी है। पूरे मामले को नजदीक से देखने पर ऐसा लगता है कि संगठन पर अभय चौटाला का प्रभाव है जबकि लोकप्रियता के मामले में दुष्यंत चौटाला अपने चाचा से कहीं आगे खड़े हैं।

इस बीच दुष्यंत चौटाला की गतिविधियां तेज हो गयी हैं। दुष्यंत हरियाणा से लेकर दिल्ली तक कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रहे हैं। और कार्रवाई के खिलाफ संघर्ष करने का दावा कर रहे हैं। दिल्ली में अपने आवास पर बड़े स्तर पर समर्थकों के साथ बैठक करने के जरिये और सोमवार को हिसार के देवीलाल सदन और कल भिवानी में दुष्यंत कार्यकर्ताओं से रूबरू हुए। इस मौके पर उन्होंने कहा कि “मैं हर संघर्ष के लिए तैयार हूं।

संघर्ष से नहीं डरता और यह मैंने अपने परदादा, दादा और पिता से सीखा है”। पार्टी में अजय चौटाला के योगदान का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि “उन्होंने पार्टी के लिए 40 साल लगाए हैं”। दुष्यंत चौटाला कार्यकर्ताओं की मेहनत की बदौलत इनेलो को फिर सत्ताह तक पहुंचाने की बात कर रहे हैं। हिसार और भिवानी में जिस तरह से बुजुर्गों, महिलाओं व युवाओं ने दुष्यंत का स्वागत किया, उससे तो ऐसा ही लग रहा था कि निष्कासन के बाद उनकी लोकप्रियता और बढ़ी है। 

अभय चौटाला के इनेलो कार्यकारिणी में दुष्यंत समर्थकों को कम तवज्जो देने पर दुष्यंत चौटाला ने ट्वीट कर लिखा कि “ना मैं विचलित हूं, ना मैं भयभीत हूं”। उनका नेताओं से मिलने का सिलसिला जारी है। सूत्रों की मानें तो दुष्यंत चौटाला बसपा सुप्रीमो मायावती से भी मिलने का समय ले चुके हैं। इनेलो के कार्यकर्ताओं का एक गुट अभय चौटाला को भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहता है तो एक गुट दुष्यंत चौटाला के पक्ष में है। 

31 साल पहले भी इस राजनीतिक परिवार में इसी तरह के हालात चौधरी देवीलाल के सामने बने थे। दरअसल 1987 में एकतरफा जीत ही देवीलाल के बेटों के बीच वर्चस्व की जंग की बड़ी वजह बन गई थी। 1989 में देश में हुए बदलाव के बाद केंद्र में चौधरी देवीलाल की मांग बढ़ने पर उनके सामने अपने तीनों बेटों रणजीत सिंह, प्रताप सिंह और ओमप्रकाश चौटाला में से किसी एक को हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाने का विकल्प था।

विधानसभा में 90 में से 85 सीट जीत कर हरियाणा में बड़ी ताकत के रूप में उभरे देवीलाल के लिए यह चयन करना बड़ा मुश्किल था। अंतत: उन्होंने ओमप्रकाश चौटाला को मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया। यह कलह उस वक्त भी बढ़ी थी। और इसके नतीजे के तौर पर उनके दूसरे बेटे रणजीत और प्रताप सिंह चौटाला धीरे-धीरे अलग राह पकड़ लिए। 

आज के हालात दूसरे हैं। ओमप्रकाश चौटाला और उनके बड़े पुत्र अजय चौटाला जेबीटी टीचर घोटाले में दोषी पाए जाने पर जेल में सजा काट रहे हैं। ओमप्रकाश चौटाला अपने छोटे पुत्र अभय चौटाला को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना चाहते हैं पर पार्टी कार्यकर्ताओं पर दुष्यंत की पकड़ ज्यादा है। देवीलाल की राजनीतिक विरासत पर कब्जा करने के लिए अभय चौटाला और उनके भतीजे दुष्यंत चौटाला के बीच चल रही जंग घर की चाहरदीवारी से बाहर सड़कों पर आ गयी है। 

पार्टी के आज के हालात विपरीत हैं। ओमप्रकाश चौटाला को हरियाणा सौंपते समय पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में थी और आज जब ओमप्रकाश चौटाला पार्टी की कमान अभय चौटाला के हाथ सौंपना चाहते हैं तो लगभग 15 साल से पार्टी सत्ता से बाहर है। ऐसे में संघर्ष का पलड़ा भारी होना स्वाभाविक है। और दुष्यंत चौटाला व्यवहार और संघर्ष दोनों मामलों में अभय चौटाला पर 21 बैठ रहे हैं।

चरण सिंह