Thursday, 19 January 2017

अखिलेश ने रखी नव समाजवाद की नीव!

   
देश में जो भी आंदोलन हुआ है, उसमें समाजवादियों का बहुत योगदान रहा है। चाहे स्वतंत्रता संग्राम हो, सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अराजकता के खिलाफ हुआ बुलंद हुई आवाज हो। अस्सी के दशक में बोफोर्स मामले में हुआ आंदोलन हो या फिर अन्ना आंदोलन। इन सबमें समाजवादियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। समाजवादियों ने अन्याय के खिलाफ आवाज तो उठाई पर संगठित न हो सके। चाहे जनता पार्टी की सरकार हो, जनता दल की सरकार हो या फिर 1996 में बनी देवगौड़ा सरकार।
   समाजवादियों ने सत्ता तो हासिल कर ली पर आपसी फूट के चलते कार्यकाल पूरा न कर सके। हां इन्हीं पार्टियों से निकली समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश तो राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू ने लंबे समय तक बिहार में राज किया। इसमें दो राय नहीं कि संघर्ष के मामले में समाजवादियों ने अलग छाप छोड़ी है पर केंद्र में चल रही संघियों की सरकार यह साबित करती है कि समाजवादियों में कहीं न कहीं कमियां रही हैं। गैर कांग्रेसवाद का नारा समाजवाद के प्रणेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने दिया था तो कांग्रेस के पिछड़ने पर देश की सत्ता पर समाजवादियों का कब्जा होना चाहिए था। समाजवादियों की कमियों का फायदा उठाते हुए ही नरेंद्र मोदी ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया और देश की सत्ता हथियाई।
   जब पुराने समाजवादियों पर चारों ओर से तरह-तरह के आरोप लग रहे हों। उत्तर प्रदेश में घांटी समाजवादी रहे मुलायम सिंह यादव  (नेताजी) के पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नव समाजवाद के प्रणेता के रूप में उभरे हैं। समाजवादी पार्टी और नेताजी के परिवार में जो घमासान हुआ। वह जगजाहिर है। इस घमासान में अखिलेश यादव ने बड़े संयम के साथ जो विचारधारा और नैतिकता की लड़ाई जीती है, उससे वह सोने से तपकर कुंदन बनकर उभरे हैं। डॉ. राम मनोहर लोहिया की नीतियों का अनुसरण करते हुए उन्होंने विचारधारा और उत्तर प्रदेश के विकास के सामने किसी की एक न सुनी। यहां तक कि अपने पिता की भी। तमाम विवाद के बाद आखिरकार पार्टी और चुनाव चिह्न हासिल करने में वह कामयाब रहे। आज की तारीख में निर्णायक वोटबैंक माना जाने वाला युवा वर्ग नरेंद्र मोदी से ज्यादा अखिलेश यादव की ओर आकर्षित हुआ है।
   अखिलेश यादव के पांच साल के कार्यकाल की समीक्षा करें तो इतने कम अनुभव के बावजूद वह अन्य मुख्यमंत्रियों से 20 साबित हुए हैं। भेदभाव, दुर्भावना की राजनीति से बचते हुए उन्होंने विकास की राजनीति पर ज्यादा जोर दिया। फैसले लेने के मामले में उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया यादें ताजा की हैं।  अखिलेश सरकार पर भले कोई आरोप लगे हों पर व्यक्तिगत रूप से विरोधी भी उनको कटघरे में खड़ा न कर सके। सरकार पर भी आरोप लगते तो परिवार और नेताजी के साथियों के दबाव में हुए फैसलों के चलते लगे। जहां समाजवादियों पर परिवारवाद का आरोप लगता रहा है वहीं अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष नरेश उत्तम को बनाकर अपने को विशुद्ध समाजवादी दिखाने का प्रयास किया। अखिलेश यादव के पांच साल के कार्यकाल पर ध्यान दें तो उन्होंने परिवार के किसी भी सदस्य को ज्यादा नहीं सटाया है। उनके कार्यक्रमों में परिवार से ज्यादा संगठन और सरकार के लोग देखे गए।
  कहना गलत न होगा कि उत्तर प्रदेश से अखिलेश यादव ने नव समाजवाद की नीव रखी है। जहां पुराने समाजवादी युवाओं को उभरने नहीं दे रहे थे वहीं अखिलेश यादव ने युवाओं की समाजवादी फौज तैयार कर ली है। हां पुराने समाजवादियों का आर्शीवाद वह जरूर ले रहे हैं। उम्मीद व्यक्त की जा रही है कि अखिलेश यादव की अगुआई में समाजवादियों की यही फौज उत्तर प्रदेश ही नहीं देश पर भी राज करेगी। आज भले ही लोग नरेंद्र मोदी देश के बड़े नेता बने हों पर अखिलेश यादव की लोकप्रियता का जो ग्राफ दिनोंदिन बढ़ जा रहा है। उससे वह नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में उभर रहे हैं। संघियों की समाज को तोड़ने की राजनीति के चलते देश में समाजवादियों के लिए राजनीति करने का पूरा स्पेस है। बस समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाना है। इस स्पेश को अखिलेश यादव भरते हुए देखे जा रहे हैं और उत्तर प्रदेश के रास्ते देश की राजनीतिक पटल पर छाने की ओर जा रहे हैं। 

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