Sunday, 31 July 2016

भड़ुओं को छोड़ अपने हक की लड़ाई लड़ें पत्रकार

    जरूरतमदों की आवाज उठाने का दावा करने वाले पत्रकारों की हालत यह है कि  वे लोग अपनी लड़ाई नहीं लड़ पा रहे हैं। कुछ स्वार्थी, लालची व कायर पत्रकारों ने मीडिया में ऐसा माहौल बनाकर रख दिया है कि जो जितना बड़ा दलाल उतना ही बड़ा पत्रकार। स्वाभिमान, ईमानदार व कर्मठ पत्रकारों को या तो काम नहीं करने दिया जाता या फिर उनको नकारा साबित कर दिया जाता है। इन सबसे यदि ये लोग उबर गए तो इनका इतना दमन किया जाता है कि इन्हें इसका विरोध करना पड़ता है। विरोध का नतीजा यह होता है कि उन्हें नौकरी  से हाथ  धोना  पड़ता है।     टीवी चैनलों व अखबारों में बड़ी बातें कही जाती हैं छापी जाती हैं पर जमीनी हकीकत यह है कि यदि कहीं सबसे ज्यादा शोषण है तो वह मीडिया है। इसके लिए मालिकों से ज्यादा जिम्मेदार बेगैरत, चाटुकार, चरित्रहीन व कमजोर प्रवत्ति के वे अधिकारी हैं जो अपने फायदे के लिए कुछ भी दांव पर लगा देते हैं। युवाओं में भले ही मीडिया के प्रति आक्रषण बढ़ रहा हो। मीडिया की चमक-दमक से भले ही लोग चौंधिया जा रहे हों पर स्थिति यह है कि मीडियाकर्मी दयनीय जीवन बिताने को मजबूर हैं। हां दलाल मीडियाकर्मी जरूर मजे में हैं। मैं मीडिया में शोषण के लिए मीडियाकर्मियों को भी बहुत हद तक जिम्मेदार मानता हूं। विभिन्न मीडिया संस्थानों में विभिन्न कारणों से बड़े स्तर पर पत्रकारों को बर्खास्त कर दिया गया। निलंबित कर दिया गया। स्थानांतरण कर दिया गया। कितने संस्थानों में कई-कई महीने से सेलरी नहीं मिल रही है। राष्ट्रीय सहारा इसमें प्रमुख है। यहां 12-16 महीने की सेलरी बकाया है।
    गत दिनों कुछ कर्मचारियों ने हिम्मत कर बकाया वेतन की मांग उठाई तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। इन कर्मचारियों का मात्र दोष इतना था ही इन लोगों ने तीन माह का बकाया वेतन तथा पीडीसी मांगे थे। हालांकि राष्ट्रपति महोदय से इच्छा मृत्यु की अनुमति मांगने तथा मामला पीएमओ तक पहुंचाने तथा गेट पर प्रदर्शन करने के बाद प्रबंधन को बकाया वेतन देना पड़ा। मैं सहारा प्रबंधन की निरंकुशता के लिए यहां पर काम कर रहे कर्मचारियों को भी दोषी मानता हूं। यदि बर्खास्त कर्मचारियों के साथ ये लोग भी बकाया वेतन के लिए अड़ जाते तो प्रबंधन को बर्खास्त कर्मचारियों को तो वापस लेना ही पड़ता। साथ ही इन लोगों को भी काफी बकाया वेतन मिल जाता। प्रबंधन की मजबूरी यह थी क्योंकि काम ठप था। इस प्रकरण में कुछ लोगों ने जो गद्दारी की है, वह सहारा क्रांति में काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा। इसी तरह का हाल दैनिक जागरण का है बड़े स्तर पर कर्मचारी बर्खास्त व निलंबित होकर सड़कों पर घूम रहे हैं और ये लोग जिनकी लड़ाई लड़ रहे थे वे प्रबंधन के दबाव में काम कर रहे हैं।
   मैं मीडिया में जिस तरह से दबाव में काम कराया जा रहा है उसे बंधुआ मजदूरी की संज्ञा देता हूं। मैं एक ऐसे साथी का उदाहरण दे रहा हूं, जिससे भले ही बेगैरत लोगों पर कुछ असर नहीं पड़े पर जो लोग संवेदनशील हैं उनके रोंगटे खड़े हो जायेंगे।  हमारा एक साथी ओमपाल शर्मा एक अख़बार में कार्यरत था। लंबे समय तक वेतन न मिलने की स्थिति में एक हादसे का शिकार होकर घायल हो गया था। उचित इलाज न होने पर उसका निधन हो गया। इस गम में उसकी मां भी गुजर गई। बाद में उसे  किसी तरह की मदद न मिलने पर उसकी पत्नी ने भी दम तोड़ दिया। इस साथी के छोटे-छोटे बच्चे हैं। ओमपाल शर्मा तो मात्र उदाहरण है, ऐसे कितने ओमपाल इस व्यवस्था में दम तोड़ रहे हैं और बेगैरत पत्रकार प्रबंधन से मिलकर अपने साथियों के शोषण में भागीदारी निभा रहे हैं। आज यदि सबसे बड़ी लड़ाई लड़ने की जरूरत है वह मीडिया है।
   जो पत्रकार सरकारों की तारीफ में लिखते रहते हैं, उनके लिए मैं लिखना चाहता हूं। जो सरकारें अपने वोटबैंक के लिए सातवां वेतनमान आयोग लागू कर रही हैं उन सरकारों को मीडियाकर्मियों के लिए गठित मजीठिया आयोग नहीं दिखाई दे रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद मीडिया समूहों के मालिकों के दबाव में सरकारें अभी तक मजीठिया आयोग लागू नहीं करा पाई हैं। मेरा सभी मीडिया साथियों से कहना है कि अब समय आ गया है कि हम लोग अपने मान-सम्मान व अधिकार के लिए खड़े हो जाएं। जो भडुवे पत्रकार हैं उन्हें छोड़ दो। मीडियाकर्मियों की लड़ाई लड़ने के लिए एक फेडरेशन की जरूरत है। सोचो कि  हम लोगों की ओर जरूरतमंद लोग भी आशा भरी निगाहों से देखते हैंं। जब हम लोग अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ सकते तो हमें पत्रकार कहने को कोई अधिकार नहीं ?

Friday, 29 July 2016

उप्र चुनाव : मायावती को मिला मजबूत हथियार

स्वामी प्रसाद मौर्य व आरके चौधरी की बगावत के बाद लगातार दलितों के निशानों को झेल रहीं मायावती को भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह के 'वेश्याÓ संबंधी बयान ने उत्तर प्रदेश चुनावी दंगल में जोर आजमाइश का एक मजबूत हथियार दे दिया है। जिस हथियार बल पर मायावती ने दलितों को एकजुट किया था, वही हथियार उनके हाथ में उस समय थमा दिया गया, जब दलितों के दिग्गज नेता पार्टी छोड़कर उन पर पार्टी के संस्थापक कांशीराम की नीतियों से भटकने तथा टिकट बेचने का आरोप लगा रहे हैं।
   अपनों के आरोपों से जूझ रहे मायावती ने बड़ी चालाकी से दलितों के अपमान का हवाला देकर पार्टी से छिटके दलितों को सवर्णांे के खिलाफ भड़का दिया है। भले ही बसपा नेताओं ने दयाशंकर सिंह के परिजनों को भद्दी-भद्दी गालियां दे दी हों। भले ही नसीमुद्दीन सिद्धिकी की गिरफ्तारी को लेकर भाजपा सड़कों पर हो पर मायावती के दांव के सामने भाजपा के सभी दांव फेल होते नजर आ रहे हैं।
    भाजपा को यह सोचना होगा कि जो माहौल भाजपा दलित-बनाम सवर्ण बनाने का प्रयास कर रही है। वही कार्ड कांग्रेस ने भी खेला है। कांग्रेस ने जहां ब्राह्मण चेहरे के रूप में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया है। वहीं ठाकुर चेहरा संजय सिंह को चुनाव समिति के चीफ बनाया है। प्रमोद तिवारी पहले ही एक ब्राह्मण चेहरा मौजूद है। सपा में भी ठाकुर व ब्राह्मण बहुतायत में हैं। इतना ही नहीं मायावती से टिकट मांगने वाली लाइन में सबसे अधिक सवर्ण ही हैं। ऐसे में इस प्रकरण से भाजपा को फायदा हो या न हो पर मायावती इस मुद्दे को कैश करा ले जाएंगी। मौके की नजाकत को भांपते हुए इस प्रकरण में दिलचस्पी ले रही सपा को भी कुछ सूझ नहीं रहा है।
     सपा ने ठाकुरों को रिझाने के लिए दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वामी सिंह के पक्ष में बलिया से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह के पुत्र नीरज शेखर को लगा दिया है। ये लोग यह भूल गए हैं कि ये वही मायावती हैं कि जिन्होंने 'तिलक तराजू और तलवार इनके मारो जूतें चारÓ का नारा देकर दलितों को एकजुट किया था। भले ही दयाशंकर के परिवार के साथ सपा नेता नीरज शेखर समेत कई सामाजिक संगठन आ गए हों पर दयाशंकर की एक भूल ने मायावती की पौ बारह कर दी है। मायावती अब इस मुद्दे को चुनाव में कैश कराने में युद्ध स्तर पर जुट गई हैं। अब वह दलितों के अपमान से जोड़ते हुए उत्तर प्रदेश में रैलियां करने जा रही हैं। इसकी पहल वह आगरा से कर रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों की संख्या बहुतायत में है, जिन्हें उकसाने के लिए उनके लिए यह मुद्दा बहुत है।     
     भाजपाइयों को यह समझना होगा कि गुजरात में बच्चों व मध्य प्रदेश में महिलाओं की पिटाई मामले को मायावती ने पूरी तरह से सुलगाकर दलितों में मैसेज दे दिया है। समझने की बात यह है कि उत्तर प्रदेश चुनाव ही नहीं मायावती इस मामले को पंजाव व उत्तरांचल चुनाव में भी लेकर जाएंगी। भले ही दयाशंकर सिंह के परिवार की तहरीर पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया हो। बिहार में भी एक मामला दर्ज करा दिया गया हो पर इस वोटबैंक की राजनीति में मायावती ने बढ़त बना ली है।
    मायावती की चतुराई देखिए कि माहौल को देखते हुए उन्होंने दलितों की न कहकर अपने को गरीबों की देवी बताया। इस प्रकरण से जहां भाजपा के दलितों को संगठन से जोड़ने के अभियान को झटका लगा है वहीं आरएसएस के दलितों के रिझाने का प्रयास भी कमजोर हुआ है। उत्तर प्रदेश चुनाव को देखते हुए जो भाजपा दलित कार्ड खेलने के फिराक थी, मायावती ने उसकी हवा ही निकाल दी है। इसके लिए भाजपा हाईकमान की संगठन पर नियंत्रण न रहना भी कहा जा सकता है।
    भले ही अभी जल्दबाजी लग रही हो पर जो गलती आरएसएस ने बिहार चुनाव में आरक्षण का मुद्दा छेड़कर लालू प्रसाद को एक मजबूत हथियार दे दिया था। ठीक उसी तरह से दयाशंकर सिंह ने मायावती को लेकर आपत्तिजनक बयान देकर मायावती का एक मजबूत हथियार दे दिया है। आरक्षण वाला बयान भी भावनाओं से जुड़ा था और दयाशंकर का आपत्तिजनक बयान भी भावनाओं से जुड़ा है। भावनाओं से जुड़ा बयान दयाशंकर सिंह के परिजनों को गाली देना वाला भी है पर आज की तारीख में जो जागरूकता दलितों में वह सवर्ण में नहीं दिखाई दे रही है।
   उधर मायावती को फॉर्म में आती देख नेताजी के माथे पर भी बल पड़ गए हैं। कांशीराम की नीतियों से भटकने का आरोप लगाकर मायावती को कटघरे में खड़ा कर रहे दलित नेताओं के बयानों से जो नेताजी मन ही मन मुस्करा रहे थे, वे अब बसपाईयों के दलितों के अपमान का हवाला देकर आक्रामक रुख अपमाने पर असहज महसूस कर रहे हैं। जगजाहिर है कि देश में एकमात्र मायावती ही ऐसी नेता हैं जो अपने वोटबैंक को किसी भी पार्टी में कंवर्ट करा सकती हैं। कहना गलत न होगा कि मायावती ने एक दांव से ही उत्तर प्रदेश चुनाव में बढ़त बना ली है। भले ही संसद में भाजपा के दिग्गजों ने मायावती से माफी मांग ली हो। भले ही बसपाईयों के उग्र रूप धारण कर लेने पर भाजपा और सपा लगातार मायावती पर निशाना साध रही हो। भले ही दयाशंकर सिंह के परिवार मायावती के विरोध और दयाशंकर के पक्ष में सड़कों पर उतर आया हो पर मायावती ने अपनी गति पकड़ ली है। यदि चुनाव में सपा व भाजपा को कोई मजबूत मुद्दा न मिला तो मायावती की रफ्तार को रोकना मुश्किल लग रहा है।

Sunday, 3 July 2016

दांव पर चरण सिंह की राजनीतिक विरासत


   उत्तर भारत में मजबूत पकड़ बनाने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत संभाल रहे अजित सिंह की राजनीतिक हैसियत का हाल यह हो गया कि राज्यसभा के लिए वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। आलम यह है कि वह जिस दल से गठबंधन की बात करते हैं वह उनकी पार्टी का अपने में विलय चाहता है। यह अजित सिंह का गिरता राजनीतिक स्तर ही है कि उन्हें उस पार्टी से मिलने से कोई उरेज नहीं कि जो उनके हरित प्रदेश के मुद्दे के सख्त खिलाफ है। कभी जदयू तो कभी भाजपा आैर कभी सपा से गठबंधन करने को बेताब अजित सिंह का हाल त्रिशंकू वाला हो गया है। आम चुनाव में अस्तित्व बचाने में नाकाम रहे छोटे चौधरी की सत्तालोलुपता के चलते देश के समाजवादियों को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत दांव पर लग गई है।
   संघमुक्त भारत का नारा देकर देश को विकल्प देने देने निकले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौधरी चरण सिंह का नाम भुनाने के लिए अजित सिंह को साथ लेना चाहा। मामले को लेकर कई दौर की वार्ता भी चली। उत्तर प्रदेश चुनाव में जयंत चौधरी को चेहरा बनाने की तैयारी थी। खतरे को भांपकर नीतीश कुमार का खेल बिगाड़ने के लिए अमित शाह ने अजित सिंह को राज्यसभा का लालच दिया। जब अजित सिंह नीतीश कुमार से अलग होकर भाजपा से सट गए तो उन्होंने रालोद के भाजपा में विलय की शर्त रख दी। भाजपा में बात न बनती देख अजित सिंह मुलायम की शरण में गए। सपा महासचिव शिवपाल सिंह यादव से उनकी कई दौर की वार्ता चली। अजित सिंह की फितरत से वाकिफ मुलायम सिंह ने भी विलय के बाद ही राज्यसभा भेजने की बात कही। अजित सिंह का राजनीतिक इतिहास रहा है कि सत्ता के लिए उन्होंने किसी भी दल से गठबंधन किया तथा किसी का भी साथ छोड़ दिया। यही वजह रही कि चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत लगातार सिमटती गई।
जगजाहिर है कि मुलायम सिंह को अपना सबसे प्रिय शिष्य मानने वाले चरण सिंह अंतिम समय में पुत्र मोह के चलते अपनी राजनीतिक विरासत अजित सिंह को सौंप गए थे।  अजित सिंह की संगठन पर पकड़ इतनी ढीली थी कि 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह अजित सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे पर विधायकों ने मुलायम सिंह को अपना नेता चुना। वह बात दूसरी है कि 1992 में मुलायम सिंह यादव अलग होकर अपनी पार्टी (सपा) बना ली। यह समय की नजाकत ही है कि जिस अजित सिंह को मुलायम सिंह यादव अपने में मिलाना चाहते हैं उनके ता चौधरी चरण सिंह की स्वीकार्यता व लोकप्रियता का आलम यह है कि यादव बहुल आजमगढ़ जिले से उनके भारतीय क्रांति दल को सन 1969 में 14 में से 14 विधानसभा सीटें मिली थी।
आज जो भाजपा चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को अपने में मिलाने की बात कर रही है इसके गठन से पहले ही चरण सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे। वह चरण सिंह ही थे जिन्होंने कांग्रेस के ब्रााह्मण, मुस्लिम व दलित वोटबैंक के विरोध में 'अजगर" बनाने का आह्वान किया। उन्होंने तर्क दिया कि अहीर, जाट, राजपूत व गुर्जरों का मुख्य पेशा खेती है तो इन लोगों के एकजुट होने ने किसान हित की लड़ाई लड़ना आसान हो जाएगा। आज के दौर में भले ही पिछड़ों की राजनीति आरक्षण व जातिवाद पर टिकी हो पर चौधरी चरण सिंह ने लोगों से रोजी-बेटी का रिश्ता जोड़ने को कहा। इसकी पहल उन्होंने स्वयं से की थी। यही वजह थी कि एक बेटी को छोड़ उन्होंने सभी बेटियों का विवाह अंतरजातीय किया। भले ही आज पिछड़ों के हितैषी होने का दंभ मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, शरद यादव व नीतीश भर रहे हों पर यादवों के उत्थान की पैरवी सबसे पहले चौधरी चरण सिंह ने  की थी। यही वजह थी कि उन्हें तबके पूर्वांचल के कद्दावर नेता बनारस, गाजीपुर आैर आजमगढ़ समेत कई जिलों में चौधरी चरण सिंह यादव कहकर नारे लगाते थे।
गुर्जर भले ही रामचंद्र विकल को अपना नेता मानते हों पर गुर्जरों के उत्थान के लिए रामचंद्र विकल से ज्यादा चरण सिंह ने किया। सन 1969 में विधानसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश से चरण सिंह की बीकेडी से 11 विधायक गुर्जर बिरादरी से बने थे। यह चरण सिंह की विचारधारा ही थी कि वर्तमान की उत्तर प्रदेश की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का दंभ भर  रही है तो उनके पुत्र आैर रालोद प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम का सुख भोग रहे हैं। आज भले ही उनके शिष्य जातिवाद व परिवारवाद की चपेट मे आ गए हों। इनके समाजवाद पर अवसरवाद आैर पूंजीवाद हावी होता दिख रहा है पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे। हालांकि उन पर भी अंत समय में पुत्र मोह के जागने का आरोप लगता रहा है। वह चरण सिंह ही थे कि उत्तर प्रदेश में नक्सलवाद जड़ंे न जमा सका। जमींदारी उन्मूलन कानून से उन्होंने जमीन का सामाजिक बंटवारा किया। वह राजनीतिक लड़ाई संकल्पों के सहारे जीतने का माद्दा रखते थे, यही वजह रही कि उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया तो उसे पूरा भी किया। शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
चरण सिंह के वजूद की बात करें तो सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन में अग्रिम भूमिका निभाने वालों में से चरण सिंह भी एक थे। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। मोरारजी देसाई, मधु लिमये के साथ चौधरी चरण सिंह जयप्रकाश के कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन की अगुआई की। इसी आंदोलन की बदौलत 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी आैर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री। हालांकि बाद में संजय गांधी ने ने राज नारायण आैर चौधरी चरण सिंह को बरगलाकर समाजवादियों में फूट डाल दी। राजनीतिक जानकार चौधरी चरण सिंह की यह पहली आैर अंतिम गलती मानते हैं। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर वह संसद में नहीं जा सके।
चरण सिंह के संघर्ष का असर अजित सिंह से ज्यादा सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव पर पड़ा। अजित सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सिमट कर रह गए आैर मुलायम सिंह तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने आैर अब उनके पुत्र अखिलेश यादव प्रदेश की बागडोर संभाले हुए हैं। नेताजी चौधरी चरण सिंह की वजह से अजित सिंह को भी साथ लेकर चलते रहे हैं पर अजित सिंह की सत्तालोलुपता के चलते हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। ऐसे में नेताजी अजित सिंह को कोई मौका देने को तैयार नहीं।