जुझारू, जमीनी, कत्र्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं के
बल पर चुनाव जीतने का दावा करने वाले नेता कहने को तो चुनावी रणनीति बनाने
के लिए तरह-तरह की कमेटी बनाते हैं। एक से बढ़कर एक अनुभवी नेता को चुनाव
जीतने के लिए लगाया जाता है। कार्यकर्ताओं को संगठन की रीढ़ बताया जाता है।
सत्तारूढ़ दल काम के बल पर चुनावी समर में जाते हैं पर आज के बदलते राजनीतिक
दौर में जिस तरह से मैनेज कर चुनाव लड़े जा रहे हैं उससे तो ऐसा ही लग रहा
है कि जैसे दलों को कार्यकर्ताओं व काम की जरूरत कम मैनेजरों की ज्यादा है।
देश की राजनीति में 'पीके" एक ऐसा नाम जुड़ गया है जो सभी दलों के सांगठनिक ढांचे पर भारी पड़ दिखाई दे रहा है। राजनीतिक अनुभव को चिढ़ाता प्रतीत हो रहा है। कहा जा रहा है कि भाजपा ने आम चुनाव पीके के संचालन में जीता, उसके बाद बिहार में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में भी पीके का अहम रोल रहा। अब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 'पीके" को हायर किया है। भले ही उप चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई हो पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पीके के दम पर चुनाव जीतने का दंभ भर रही है। पीके ने कार्यकर्ताओं में ऐसा मैसेज दिया है कि यदि उन लोगों ने उप्र चुनाव में बढ़त हासिल कर ली तो 2019 का आम चुनाव उनके लिए खुशी लेकर आएगा।
दिलचस्प बात यह है कि चुनाव को जीतने के लिए कांग्रेस दिग्गज नहीं बल्कि पीके कार्यकर्ताओं से वार्ता कर चुनावी रणनीति बना रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि इस तरह से ही मैनेजर चुनावी रणनीति बनाते रहें तो राजनीतिक अनुभव किस काम का कार्यकर्ता अनुभवी नेताओं से राजनीतिक पाठ क्यों सीखेंगे ? जो मैनेजर चुनाव जिताने का माद्दा रखते हैं उनसे अच्छा राजनीतिक पाठक कौन पढ़ा सकता है ? देश में गर्मी, सर्दी, झेलने वाले कार्यकर्ताओं की फिर क्या जरूरत है ? वातानुकूलित कमरों में बैठकर अच्छी राजनीति की जा सकेगी। वैसे भी देश की राजनीति बहुत तेजी से वातानुकूलित कमरों की ओर भाग रही है। यदि राजनीति इसी रूप में ढलती रही तो देश की राजनीति जनता की नहीं बल्कि आंकड़ों की होकर रह जाएगी। कार्यकर्ता जनता के बीच में पहचान न बनाकर पीके जैसे मैनेजरों के संरक्षण में रहेंगे तथा चुनाव जीतने की राजनीति सीखेंगे। देश की राजनीति में डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार बल्लभ पटेल, इंदिरा गांधी, लोक नायक जयप्रकाश, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर सिंह, चौधरी चरण सिंह जैसे आदर्श दिग्गजों की जगह पीके जैसे मैनजर लेने लगेंगे।
देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता कि लंबे समय तक देश की बागडोर संभालने वाले कांग्रेस उत्तर प्रदेश चुनाव पीके के बल पर जीतने की रणनीति बना रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में पीके की मदद लेने की बातें सामने आ रही हैं। ये वे दल हैं जो देश को नेतृत्व देने का दंभ भरते घूम रहे हैं। यदि पीके की चुनावी रणनीति इतनी प्रभावकारी है तो फिर राजनीतिक दलों को इन जैसे नेताओं की जरूरत क्या ? यह भी कहा जा सकता है कि देश के राजनीतिक दिग्गजों को अपनी प्रतिभा व काम पर भरोसा नहीं रह गया है। या फिर इन्हें लगता है कि ये लोग जनता पर ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं, जिससे इन्हें वोट मिल सके। यदि पीके देश की राजनीति में इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं तो फिर देश की बागडोर पीके को ही क्यों न सौंप दी जाए। यदि पीके चुनाव जिता सकने में सक्षम हैं तो देश भी इन लोगों से अच्छा चला लेंगे आैर अपने जैसे मैनजरों के बल पर विभिन्न प्रदेशों को भी अच्छा नेतृत्व दे देंगे।
देश में चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल अनुभव के आधार पर रणनीति बनाते हैं तथा उसी के आधार पर चुनावी समर में उतरते हैं। सत्ता व संगठन के अनुभव के आधार पर लंबे समय तक कांग्रेस ने भी राज किया।
देश की राजनीति में 'पीके" एक ऐसा नाम जुड़ गया है जो सभी दलों के सांगठनिक ढांचे पर भारी पड़ दिखाई दे रहा है। राजनीतिक अनुभव को चिढ़ाता प्रतीत हो रहा है। कहा जा रहा है कि भाजपा ने आम चुनाव पीके के संचालन में जीता, उसके बाद बिहार में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में भी पीके का अहम रोल रहा। अब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 'पीके" को हायर किया है। भले ही उप चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई हो पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पीके के दम पर चुनाव जीतने का दंभ भर रही है। पीके ने कार्यकर्ताओं में ऐसा मैसेज दिया है कि यदि उन लोगों ने उप्र चुनाव में बढ़त हासिल कर ली तो 2019 का आम चुनाव उनके लिए खुशी लेकर आएगा।
दिलचस्प बात यह है कि चुनाव को जीतने के लिए कांग्रेस दिग्गज नहीं बल्कि पीके कार्यकर्ताओं से वार्ता कर चुनावी रणनीति बना रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि इस तरह से ही मैनेजर चुनावी रणनीति बनाते रहें तो राजनीतिक अनुभव किस काम का कार्यकर्ता अनुभवी नेताओं से राजनीतिक पाठ क्यों सीखेंगे ? जो मैनेजर चुनाव जिताने का माद्दा रखते हैं उनसे अच्छा राजनीतिक पाठक कौन पढ़ा सकता है ? देश में गर्मी, सर्दी, झेलने वाले कार्यकर्ताओं की फिर क्या जरूरत है ? वातानुकूलित कमरों में बैठकर अच्छी राजनीति की जा सकेगी। वैसे भी देश की राजनीति बहुत तेजी से वातानुकूलित कमरों की ओर भाग रही है। यदि राजनीति इसी रूप में ढलती रही तो देश की राजनीति जनता की नहीं बल्कि आंकड़ों की होकर रह जाएगी। कार्यकर्ता जनता के बीच में पहचान न बनाकर पीके जैसे मैनेजरों के संरक्षण में रहेंगे तथा चुनाव जीतने की राजनीति सीखेंगे। देश की राजनीति में डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार बल्लभ पटेल, इंदिरा गांधी, लोक नायक जयप्रकाश, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर सिंह, चौधरी चरण सिंह जैसे आदर्श दिग्गजों की जगह पीके जैसे मैनजर लेने लगेंगे।
देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता कि लंबे समय तक देश की बागडोर संभालने वाले कांग्रेस उत्तर प्रदेश चुनाव पीके के बल पर जीतने की रणनीति बना रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में पीके की मदद लेने की बातें सामने आ रही हैं। ये वे दल हैं जो देश को नेतृत्व देने का दंभ भरते घूम रहे हैं। यदि पीके की चुनावी रणनीति इतनी प्रभावकारी है तो फिर राजनीतिक दलों को इन जैसे नेताओं की जरूरत क्या ? यह भी कहा जा सकता है कि देश के राजनीतिक दिग्गजों को अपनी प्रतिभा व काम पर भरोसा नहीं रह गया है। या फिर इन्हें लगता है कि ये लोग जनता पर ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं, जिससे इन्हें वोट मिल सके। यदि पीके देश की राजनीति में इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं तो फिर देश की बागडोर पीके को ही क्यों न सौंप दी जाए। यदि पीके चुनाव जिता सकने में सक्षम हैं तो देश भी इन लोगों से अच्छा चला लेंगे आैर अपने जैसे मैनजरों के बल पर विभिन्न प्रदेशों को भी अच्छा नेतृत्व दे देंगे।
देश में चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल अनुभव के आधार पर रणनीति बनाते हैं तथा उसी के आधार पर चुनावी समर में उतरते हैं। सत्ता व संगठन के अनुभव के आधार पर लंबे समय तक कांग्रेस ने भी राज किया।
सपा,
बसपा, राजद, जदयू के अलावा वामपंथियों ने आगे बढ़कर कार्यकर्ताओं के बल पर
अपना जनाधार बनाया है। लगभग सभी दल अपने-अपने काम के आधार पर वोट मांगते
देखे जा सकते हैं। इस रणनीति में संगठन के नेतृत्व का अहम रोल माना जाता
रहा है पर आज के इस बदले राजनीतिक दौर में जिस तरह से पीके जैसे मैनेजरों
को चुनावी रणनीति की इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी जा रही है यह न केवल
राजनीतिक दलों बल्कि देश के लिए भी घातक है। यदि इसी तरह से मैनेजरों के
बल पर चुनाव लड़े व जीते जाते रहेंगे तो कौन सा दल संगठन बनाएगा आैर कौन सी
सरकार काम करेगी ? पैसों के बल पर मैनेजर हायर करे जाएंगे तथा चुनाव जीतकर
जनता के खून-पसीने की कमाई पर एशोआराम की जिंदगी बिताई जाएगी।
No comments:
Post a Comment