लंबे समय तक हरित प्रदेश के नाम पर
राजनीति करने वाले अजीत सिंह जब इस मुद्दे को भूल गए। जब यह मुद्दा ठंडा
पड़ने लगा। ऐसे में किसानों की उपेक्षा, बेरोजगारी व कानून व्यवस्था को
लेकर लोगों की अलग प्रदेश की कुलबुलाहट को पहचानकर वरिष्ठ वकील देवेंद्र
सिंह, पूर्व इंजीनियर केपी सिंह तोमर ने कुछ समाजसेवक व देहात मोर्चा से
जुड़े रहे कुछ नेताओं को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी बनाई आैर
शुरू कर दिया अलग प्रदेश बनाने के लिए आंदोलन। इस आंदोलन में फाइट फॉर
राइट, जाट सभा के साथ ही कई किसान संगठन शामिल हो गए हैं। इस आंदोलन की
रूपरेखा उत्तर प्रदेश के 28 जिलों के मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन कर
राष्ट्रपति से पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग करने की
रूपरेखा बनी है। वैसे 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश को चार
भागों पश्चिमांचल, बुंदेलखंड, मध्य उत्तर प्रदेश व पूर्वांचल में बांटने का
प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेज चुकी हैं। गत दिनों केंद्र सरकार
का गृह मंत्रालय भी उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के लिए सक्रिय हुआ था, तो यह
माना जाए कि इस बार का संघर्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनवा
देगा। वैसे भी रालोद, कांग्रेस बसपा व भाजपा प्रदेश के बंटवारे के पक्ष
में देखी जाती रही हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग स्वतंत्रता आंदोलन से ही उठती रही है। 1919 में लंदन में हुए गोलमेल सम्मेलन में भी यह बात प्रमुखता से उठी थी। इसमें दो राय नहीं कि यदि प्रदेश का बंटवारा हो जाता है तो अन्य प्रदेशों को तो इसका फायदा मिलेगा ही पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों की चांदी कट जाएगी। सम्पन्नता के मामले में यह प्रदेश हरियाणा आैर पंजाब को भी पीछे छोड़ देगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश खेती के मामले में बहुत सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। तराई क्षेत्र होने की वजह से यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ हो है आैर यहां पर बड़े स्तर पर पैदावार उगाई जाती है। वैसे तो यह क्षेत्र गन्ने की फसल के नाम से जाना जाता है पर यहां पर गेहूं, चावल के साथ चना, दाल, बाजरा की पैदावार भी प्रमुखता से उपजाई जाती है। पर कुछ दिनों से जिस तरह से बकाया गन्ना भुगतान आैर सरकारों के उपेक्षित रवैये के चलते यहां के किसान टूटते जा रहे हैं। सीमांत किसानों का खेती से मोह भंग हो रहा है। यही वजह है कि ये लोग अब अपना अलग प्रदेश चाहते ।
हरित प्रदेश के गठन नाम पर चौधरी अजित सिंह लंबे समय से इस क्षेत्र के लोगों को ठग रहे। कई बार मौके आए कि वह अलग प्रदेश के नाम पर अडे़ पर सत्तालोलुपता के चलते वह सत्ता में उलझ कर रहे गए। यही वजह रही कि इन लोकसभा चुनाव में लोगों ने उनकी निष्क्रियता से तंग आकर उन्हें नकार दिया। यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 70 फीसद राजस्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश देता है पर सरकारी स्तर पर यहां पर विकास के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जाता है। इसका कारण यहां पर राजनीतिक जागरूकता का अभाव माना जाता है। यही कारण है कि तमाम प्रयास आैर आंदोलन के बावजूद यहां पर हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो सकी। यहां के लोगों को यह भी समझना चाहिए कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश इतनी आसानी से नहीं बनने वाला है, क्योंकि पूर्वांचल के नेता नहीं चाहते कि यह क्षेत्र प्रदेश से कटकर अलग पहचान बनाए। यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर बाहरी लोग सांसद बने हैं। अब समय आ गया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को जांत-पांत-धर्म आैर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर 'किसान के बेटे" के रूप में एकजुट होना होगा आैर नई पीढ़ी के भविष्य के लिए अलग प्रदेश बनाने के लिए बड़ा आंदोलन करना होगा। ईमानदारी से करना होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गठन को लेकर सही नीयत न होने की वजह से अमर सिंह, अजित सिंह को नकार दिया गया। अमर सिंह ने लोकमंच के माध्यम से प्रदेश के पुनर्गठन की मांग उठाई थी। उसमें पूर्वांचल को अलग प्रदेश बनाने पर ज्यादा जोर दिया था पर उनकी इस मांग में वोटबैंक की बू आ रही थी।
हमें यह देखना होगा कि राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना आजादी के शुरुआती दिनों में भाषाई आधार पर की गई थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं थे पर हालात ऐसे बन गए कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास में हुई मौत आैर संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया। 22 दिसम्बर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। जस्टिस फजल अली, ह्मदयनाथ कुंजरू आैर केएम पाणिक्कर इस आयोग के सदस्य बनाए गए। आयोग ने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। कुल 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। उस समय बंबई में गुजराती व मराठी लोग रहते थे तथा बंबई को तोड़कर महाराष्ट्र व गुजरात बनाए गए। 1966 में भाषाई आधार पर पंजाब में से हरियाणा व हिमाचल प्रदेश नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी आैर कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत को महसूस किया। 1972 में मेघालय, मणिपुर आैर त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया आैर केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश आैर गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। वर्ष 2000 में भाजपा के प्रयास से उत्तराखंड, झारखंड आैर छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना का गठन किया तो उत्तर प्रदेश की सर्जरी की मांग ने भी जोर पकड़ा है। अब देखना यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए संघर्ष कर रहे दल अपनी मुहिम को अमली जामा पहना पाते हैं या फिर वोटबैंक की राजनीति तक ही सिमट कर रह जाते हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग स्वतंत्रता आंदोलन से ही उठती रही है। 1919 में लंदन में हुए गोलमेल सम्मेलन में भी यह बात प्रमुखता से उठी थी। इसमें दो राय नहीं कि यदि प्रदेश का बंटवारा हो जाता है तो अन्य प्रदेशों को तो इसका फायदा मिलेगा ही पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों की चांदी कट जाएगी। सम्पन्नता के मामले में यह प्रदेश हरियाणा आैर पंजाब को भी पीछे छोड़ देगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश खेती के मामले में बहुत सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। तराई क्षेत्र होने की वजह से यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ हो है आैर यहां पर बड़े स्तर पर पैदावार उगाई जाती है। वैसे तो यह क्षेत्र गन्ने की फसल के नाम से जाना जाता है पर यहां पर गेहूं, चावल के साथ चना, दाल, बाजरा की पैदावार भी प्रमुखता से उपजाई जाती है। पर कुछ दिनों से जिस तरह से बकाया गन्ना भुगतान आैर सरकारों के उपेक्षित रवैये के चलते यहां के किसान टूटते जा रहे हैं। सीमांत किसानों का खेती से मोह भंग हो रहा है। यही वजह है कि ये लोग अब अपना अलग प्रदेश चाहते ।
हरित प्रदेश के गठन नाम पर चौधरी अजित सिंह लंबे समय से इस क्षेत्र के लोगों को ठग रहे। कई बार मौके आए कि वह अलग प्रदेश के नाम पर अडे़ पर सत्तालोलुपता के चलते वह सत्ता में उलझ कर रहे गए। यही वजह रही कि इन लोकसभा चुनाव में लोगों ने उनकी निष्क्रियता से तंग आकर उन्हें नकार दिया। यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 70 फीसद राजस्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश देता है पर सरकारी स्तर पर यहां पर विकास के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जाता है। इसका कारण यहां पर राजनीतिक जागरूकता का अभाव माना जाता है। यही कारण है कि तमाम प्रयास आैर आंदोलन के बावजूद यहां पर हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो सकी। यहां के लोगों को यह भी समझना चाहिए कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश इतनी आसानी से नहीं बनने वाला है, क्योंकि पूर्वांचल के नेता नहीं चाहते कि यह क्षेत्र प्रदेश से कटकर अलग पहचान बनाए। यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर बाहरी लोग सांसद बने हैं। अब समय आ गया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को जांत-पांत-धर्म आैर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर 'किसान के बेटे" के रूप में एकजुट होना होगा आैर नई पीढ़ी के भविष्य के लिए अलग प्रदेश बनाने के लिए बड़ा आंदोलन करना होगा। ईमानदारी से करना होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गठन को लेकर सही नीयत न होने की वजह से अमर सिंह, अजित सिंह को नकार दिया गया। अमर सिंह ने लोकमंच के माध्यम से प्रदेश के पुनर्गठन की मांग उठाई थी। उसमें पूर्वांचल को अलग प्रदेश बनाने पर ज्यादा जोर दिया था पर उनकी इस मांग में वोटबैंक की बू आ रही थी।
हमें यह देखना होगा कि राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना आजादी के शुरुआती दिनों में भाषाई आधार पर की गई थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं थे पर हालात ऐसे बन गए कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास में हुई मौत आैर संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया। 22 दिसम्बर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। जस्टिस फजल अली, ह्मदयनाथ कुंजरू आैर केएम पाणिक्कर इस आयोग के सदस्य बनाए गए। आयोग ने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। कुल 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। उस समय बंबई में गुजराती व मराठी लोग रहते थे तथा बंबई को तोड़कर महाराष्ट्र व गुजरात बनाए गए। 1966 में भाषाई आधार पर पंजाब में से हरियाणा व हिमाचल प्रदेश नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी आैर कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत को महसूस किया। 1972 में मेघालय, मणिपुर आैर त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया आैर केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश आैर गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। वर्ष 2000 में भाजपा के प्रयास से उत्तराखंड, झारखंड आैर छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना का गठन किया तो उत्तर प्रदेश की सर्जरी की मांग ने भी जोर पकड़ा है। अब देखना यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए संघर्ष कर रहे दल अपनी मुहिम को अमली जामा पहना पाते हैं या फिर वोटबैंक की राजनीति तक ही सिमट कर रह जाते हैं।