Monday, 2 February 2015

तो दबाई जाएगी हक की लड़ाई की आवाज

दिल्ली में जनजातीय कल्याण संबंधी एक उच्चस्तरीय समीक्षा बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से नवगठित नीति आयोग को आदिवासी क्षेत्रों में वामपंथी उग्रवाद को फैलने से रोकने के लिए मिलकर रणनीति तैयार करने को कहा है। जिस तरह से उन्होंने उग्र आंदालनों की वामपंथी उग्रवाद के रूप में की संज्ञा दी है। जिस तरह से उन्होंने नाम लिए बिना आप कार्यकर्ताओं को नक्सली कहा है। जिस तरह से  हक की लड़ाई लड़ने के लिए धरना-प्रदर्शन करने वालों को उन्होंने अराजक लोग कहा है। जिस तरह से उन्होंने इन जैसे लोगों को जंगल में चले जाने को कहा है। उससे उनकी सरकार को चलाने की मंशा जाहिर होने लगी है। उससे ऐसा लगने लगने लगा है कि  केंद्र सरकार हक की लड़ाई के लिए उठाई जाने वाली आवाज को दबाने की तैयारी कर रही है।
     प्रधानमंत्री इस तरह की मंशा इसलिए भी लग रही है कि क्योंकि सरकार की अधिकतर योजनाएं पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। यह स्वभाविक भी क्योंकि भाजपा ने आम चुनाव में लगभग 750 करोड़ रुपए खर्च किए हैं तो जाहिर है कि इतनी बड़ी राशि तो पूंजीपति ही उपलब्ध करवा सकते हैं।
     ये बातें इस बात से भी प्रमाणित होती हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने जिस तरह से श्रम कानून में संशोधन करने के लिए आयोजित बैठक में श्रमिक संगठनों को न बुलाकर पूंजीपतियों को बुलाया, उससे सरकार का पूंजपीतियों के दबाव में काम करना जैसा लगता है। यह मुद्दा इसलिए भी उभारना बनता है क्योंकि प्रधानमंत्री ने आतंकवाद आैर नक्सलवाद की नहीं बल्कि वामपंथी उग्रवाद की बात कही है। यह इसलिए भी बनता है कि क्योंकि यह शब्द उन्होंने ऐसे में कहा है कि जब वामपंथियों का आंदोलन लगभग न के बराबर है।
      पश्चिमी बंगाल में वामपंथियों के उग्र आंदोलन की बातें कही जाती रही हैं, पर वहां पर भी ममता बनर्जी के वर्चस्व के चलते वामपंथी शांत से ही हैं। इस शब्द की चर्चा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में भी गरम दल के नेताओं के आंदोलन को कुछ लोगों ने वामपंथी उग्रवाद की संज्ञा दी थी। कई राजनीतिक दलों ने व्यवस्था परिवर्तन को लेकर हुए अन्ना आंदोलन को भी वामपंथी उग्रवाद की संज्ञा दी थी। आम आदमी पार्टी के आंदोलन को भी वामपंथी उग्रवाद की संज्ञा दी जाती रही है। तो यह कहा जाए कि हक की लड़ाई के लिए किए जाने वाले आंदोलन पर सख्ती होने पर उग्र रूप धारण करने के बाद वह वामपंथी उग्रवाद के रूप में देखा जाएगा।
     प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि कि भले ही देश में सरकार बदल गई हो पर व्यवस्था नहीं बदली है। भले ही वह सुधार की तमाम बातें करते फिर रहे हों पर आज भी मुट्ठीभर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक रह जाता है उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। न महंगाई पर अंकुश लग पाया है आैर न ही भ्रष्टाचार पर। भले ही सरकार किसान हितैषी होने की बात कर ही हो पर यह देखना होगा कि मोदी सरकार के 100 दिनों में 4600 किसानों ने आत्महत्या की है। भ्रष्टाचार के चलते जिसका जहां मौका मिल रहा है, वहां देश को दोनों हाथों से लूटा जा रहा है। गत दिनों प्रधानमंत्री ने कुछ दलों पर पूंजीपतियों को गलियाते हुए राजनीतिक करने का आरोप लगाया था। मोदी जी को यह समझना होगा कि पूंजीपति ही देश के गरीब आदमी की कमाई खा रहे हैं। नहीं तो गरीब आैर अमीर के बीच की दूरी क्यों बढ़ती जा रही है। वह खुद अपने को गरीब परिवार से बताते हैं तो उन्होंने भी महसूस किया होगा कि पूंजीपति आम आदमी को कीड़े-मकौड़े से ज्यादा समझने को तैयार नहीं।  
     पूंजीपति एशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं आैर गरीब आदमी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। ऐसे में सरकार गरीबों को राहत देने के लिए क्या कर रही है ? यदि कर रही है तो उन्हें राहत क्यों नहीं मिल रही है।
प्रधानमंत्री अपने को गांवों से जुड़ा बताते हैं पर उनकी सरकार में गांवों की उपेक्षा हो रही है। स्मार्ट सिटी के नाम पर बड़े स्तर पर निवेश किया रहा है पर आदर्श गांव बनाने के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीणों से अपना श्रमदान कर गांवों के विकास की बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि स्मार्ट सिटी का फायदा गरीब को कम अमीर को ज्यादा मिलेगा।         प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि शहर देश के टॉप 10 फीसद पूंजीपतियों की आैसत संपत्ति लगभग 14.6 करोड़ रुपए है आैर निम्न 10 फीसद गरीबों की मात्र 169 रुपए। एक ओर एक फीसद पूंजीपतियों के पास देश की आधी संपत्ति है आैर दूसरी ओर आधी 99 फीसद लोगों के पास। गरीब आदमी के पास तो मात्र .2 फीसद है।
    निजी संस्थाओं में श्रमिकों का जमकर शोषण किया जा रहा है। गांवों में आज भी मजदूर बेहाल हैं। भले ही सरकार ने हर जिले में श्रम विभाग के कार्यालय खोल रखे हों पर इन कार्यालयों का फायदा श्रमिकों को कम आैर उद्योगपतियों को ज्यादा मिलता है। संबंधित अधिकारियों की पूंजीपतियों की मिलीभगत के चलते श्रमिकों के हित प्रभावित होते हैं। सरकार ने अध्यादेश के माध्यम भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कर दिया, जिसके चलते अब  किसानों की जमीन का आसानी से अधिग्रहण किया जा सकेगा।
      प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि जोत की जमीन लगातार घट रही है। यही स्थिति रही तो खाद्यान्न समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। वैसे भी विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में सरकार के विरोध में आवाज उठना स्वभाविक है। बताया जा रहा है कि श्रम कानून में जो संशोधन किया जा रहा है वह उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रख कर किया जा रहा है। विदेशी निवेशकों को देश में सस्ता श्रम आैर खस्ती जमीन के आश्वासन के साथ लाया जा जा रहा है। ऐसे में गरीब आदमी प्रभावित होगा तो हक की आवाज उठेगी ही, उसमें वामपंथी संगठन भी शामिल होंगे। सरकार सख्ती भी करेगी तो आंदोलन उग्र भी धारण करेगा। तो उसे वामपंथी उग्रवाद की संज्ञा दी जाएगी ? वैसे भी वामपंथियों ने गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा का विरोध कर अपने तेवर दिखा दिए हैं।
       मैं प्रधानमंत्री से ही पूछना चाहता हूं कि क्या इस व्यवस्था में गरीब आदमी की कोई सुनने को तैयार है ? यदि गरीब के साथ लगातार अन्याय किया जा रहा है, उत्पीड़न किया जा रहा है तो ऐसे में कई बार आदमी उग्र रूप धारण कर लेता है हथियार उठा लेता है। इसमें दो राय नहीं कि गरीब के उत्पीड़न के खिलाफ बड़े स्तर पर वैचारिक आंदोलनों के साथ ही हिंसक आंदोलन हुए हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ये लोग शौकिया हथियार उठाते हैं ? क्या इनके लिए सरकारें ऐसे संशाधन उपलब्ध नहीं करा सकतीं, जिससे उनका जीवन स्तर ऐसा बनाया जा सके, जिसके चलते वह अपने पथ से न भटकें।
     यदि नक्सलवाद को ही वामपंथी उग्रवाद के रूप में देखा जा रहा है तो यह समझना होगा कि नक्सली विचारधारा पर गत सरकार के सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे में नक्सली विचारकों को सशस्त्र कैडर से अधिक खतरनाक दर्शाया गया था। हलफनामे के अनुसार सीपीआई (माओवादी) विचारक सुनियोजित तरीके से सरकार को बदनाम करते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश में नक्सली विचारक बन ही क्यों रहे हैं ?
     पिछड़े क्षेत्र में नक्सली गतिवधियों में सक्रिय रहने वाले लोग तरह-तरह की योजनाओं के अलावा काफी लोक-लुभावनों वादों के बाद भी सरकार की बात क्यों नहीं मान रहे हैं ? ये लोग अपना घर-परिवार छोड़कर जंगलों की जिंदगी क्यों बिता रहे हैं ? मेरा मानना है कि ऐसे में विचारधारा को न कुचलकर सरकार को नक्सलवाद के कारण आैर जड़ों तक जाना होगा। क्या ये लोग सुख सुविधाओं से दूर रहकर जगंलों में ही रहना पसंद करते हैं ?
     क्या इन्हें एशोआराम की जिंदगी पसंद नहीं ? क्या सभी नक्सली लेवी वसूलते हैं ? क्या सभी नक्सली सेना को अपना निशाना बना रहे हैं। या बना रहे हैं तो क्यों बना रहे हैं ? इसमें दो राय नहीं कि नक्सली हमलों में बड़े स्तर पर जान-माल का नुकसान हुआ है। ऐसे में सरकार को कारणों पर जाना जरूरी है ? क्योंकि किसी सामाजिक विचारधारा या आंदोलन का दमन उसे उकसाता है, बढ़ाता है। क्या आज भी गरीब आदमी दमन नहीं हो रहा है ? क्या सरकारी योजनाओं का फायदा वास्तव में लाभ पात्र तक पहुंच रहा है ? क्या राजनेताओं व नौकरशाही की मिलीभगत से योजनाओं की राशि की बंदरबांट नहीं हो रही है ?
      दरअसल ध्वस्त हो चुकी व्यवस्था से गरीब आदमी इतना टूट चुका है। कुछ लोग व्यवस्था के सामने घुटने टेक देते हैं आैर कुछ उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। सरकार के प्रति उपज रहे आक्रोश का फायदा नक्सली विचारक उठाते हैं। चाहे इसे आप नक्सलवाद की परिभाषा दो या फिर वामपंथी उग्रवाद की। यह शब्द कहीं न कहीं इस व्यवस्था के खिलाफ ही पैदा हुआ है। क्योंकि इसके विचारक कोई अनपढ़ लोग नहीं बल्कि पढ़े-लिखे आैर एक सोच रखने वाले लोग हैं। आखिरकार ये लोग इस विचारधारा की ओर क्यों आकर्षित हुए हैं। यह भी देखना होगा कि नक्सलवाद या वामपंथी उग्रवाद से जुड़े अधिकतर लोग गरीब परिवारों से ही हैं।
     दरअसल लगातार बढ़ रही बेरोजगारी के चलते बड़ी संख्या में युवा अपराध की दुनिया में धकेले जा रहे हैं। देश में ऐसी व्यवस्था नहीं पैदा कर दी गई है कि जहां एक एक विशेष वर्ग करोड़ों में खेल रहा है वहीं गरीब आदमी को अभी भी दो वक्ट की रोटी के भी लाले पड़े हैं। एक ओर जहां  युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा है, बड़े स्तर पर रोजगार छीना भी जा रहा है।
     भले  ही सरकारें नक्सलवाद या वामंपथी उग्रवाद को कुचलने की बात करती रही हों पर इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है कि हार्डकोर नक्सली सुरक्षा एजेंसियों के समक्ष कुछ सफेदपोशों के संरक्षण की बातें कुबूल चुके हैं। इन लोगों का कहना है कि कई एनजीओ व राजनीतिज्ञों के साथ नक्सल संगठन की अच्छी सांठगांठ है। अब प्रश्न यह उठता है कि संगठन को चलाने हथियार खरीदने के लिए नक्सलियों के पास धनराशि आती कहां से है। जब नेता ही नक्सलवाद को संरक्षण दे रहे हैं तो नक्सली विचारधारा को कैसे खत्म किया जा सकता है। नक्सलवाद क्षेत्र में वोटबैंक की राजनीति इस समस्या को बढ़ावा दे रही है। नक्सली समस्या से निपटने के लिए इस शब्द को समझना जरूरी है। सरकार को यह समझना होगा कि कभी व्यवस्था के विरोध में खड़े हुए नक्सली आंदोलन ने कब कैसे हिंसा का रूप ले लिया आैर कब किन परिस्थितियों में यह कुछ लोगों के लिए धंधा बन गया। किस तरह से लोगों की भावनाओं को नक्सली आंदोलन से जोड़ा जा रहा है। किस तरह से इस समस्या  ने वामपंथी उग्रवाद का रूप ले लिया।
     प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि यदि उनकी नजरों में वामपंथी उग्रवाद नक्सलवाद ही है तो इसकी उत्पत्ति भी अन्याय के खिलाफ ही हुई थी। 'नक्सलवाद" कम्युनिस्टों के उस आंदोलन का नाम है, जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के रूप में पैदा हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के गांव 'नक्सलबाड़ी" से मानी जाती है, जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार आैर कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी।
मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसक माने जाते रहे हैं। वह मजदूरों आैर किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी की नीतियों को जिम्मेदार मानते थे। उनका कहना था कि सरकार की गलत नीतियों के चलते ही उच्च वर्गां का शासन व कृषि तंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया। वह इसे न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व मानते थे। उनका मानना था कि केवल सशस्त्र क्रांति से ही इसे समाप्त किया जा सकता है। बताया जाता है कि नक्सलियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। बाद में इन विद्रोहियों ने स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया आैर हक की लड़ाई लड़ने का नारा देकर आैर सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी गई।
ऐसा माना जाता है कि 1971 में मजूमदार आैर सत्यनारायण सिंह के निधन के बाद यह आंदोलन कई शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य आैर विचारधारा से भटक गया। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गए हैं आैर संसदीय चुनाव में भाग भी लेते हैं। ऐसे भी बहुत से संगठन हैं जो छदम लड़ाई लड़ रहे हैं। नक्सलवाद के विचारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड आैर बिहार को झेलनी पड़ रही है। लगभग 30 सालों से नक्सलवाद की परिस्थतियां बदली हैं। 1983 में पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) जैसे हिंसावादी नक्सली संगठन बन गए आैर उन्होंने 'आम्र्ड रेवोल्यूशन" का नारा दिया। प्रधानमंत्री को यह भी समझना होगा कि मिलिटेंसी आैर पॉलिटिक्स दोनों साथ-साथ चलने से यह मामला तो गंभीर हो गया है। इसकी जड़ में जाना बहुत जरूरी है।

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