Monday, 28 November 2016

नमक से समाजवाद लाएंगे अखिलेश!

   नमक एक ऐसा पदार्थ है कि इसके बिना काम नहीं चल सकता है। गरीब के लिए तो नमक कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण माना जाता है। कितनी बार जब गरीब आदमी का दाल, सब्जी या चटनी की व्यवस्था नहीं कर पाता है तो नमक की रोटी ही खाकर अपना काम चला लेता है। नमक के बारे में हमारे समाज में यह धारणा भी रही है कि जो कोई किसी का नमक खा ले तो वह उसके साथ विश्वासघात नहीं करता है। अखिलेश यादव ने नमक के माध्यम से लोगों से जुड़ने की अच्छी रणनीति बनाई है। यह उनका समाजवाद के प्रति समर्पण भाव ही है कि उन्होंने इसे समाजवादी नमक का नाम दिया है। यह नमक उत्तर प्रदेश में सरकार की ओर से रियायती मूल्य पर मिलेगा। सरकार का दावा है कि यह नमक आयरन और आयोडीन युक्त बनाया गया है। सरकार का कहना है कि उनके द्वारा कराए गए सर्वे में गर्भवती महिलाओं व बच्चों की चिंताजनक तस्वीरें सामने आई हैं। सरकार ने यह महसूस किया है कि एनीमिया की जानकारी के अभाव में लोगों का स्वास्थ्य खराब हो रहा है।
   जब देश में समाजवाद का झंडा थामे पुराने समाजवादियों पर तरह-तरह के आरोप लगने लगे तो मुख्यमंत्री बनने के बाद परिवार और वरिष्ठ नेताओं की वजह से तमाम आलोचना झेलने वाले अखिलेश यादव ने डॉ. राम मनोहर लोहिया की नीतियों पर चलते हुए समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया। गत दिनों  परिवार व पार्टी में मचे घमासान में विचारधारा को लेकर अपनाए गए अखिलेश यादव के रुख ने जो संदेश दिया उसने अच्छे से अच्छे राजनीतिज्ञों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया।
   वह अखिलेश यादव का समाजवाद ही था कि बाहुबली डीपी यादव को उन्होंने पार्टी में घुसने नहीं दिया। जब नेताजी व शिवपाल यादव ने बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय किया तो अखिलेश यादव ने इसका जमकर विरोध किया। यह उनकी जिद ही थी कि उनकी बात न मानी जाने पर वह गाजीपुर में हुई सपा की चुनावी रैली में नहीं गए। यह उनका दृढ़ संकल्प ही है कि विचारधारा और पार्टी के लिए उन्होंने जो स्टैंड लिया है, तमाम दबाव उसे डिगा नहीं पाए। जहां वह पार्टी के थिंकटैंक माने जाने वाले प्रो. रामगोपाल यादव को फिर से पार्टी में लाने में कामयाब रहे वहीं पार्टी से निष्कासित युवा नेताओं का निष्कासन भी वह समाप्त कराने वाले हैं। दूसरी ओर मंत्रिमंडल से हटाए गए किसी भी मंत्री को किसी भी दबाव में वापस न लेकर उन्होंने अपने को साबित भी दिखाया।
   समाजवादी विचारधारा की बात करें तो विदेश में ही भले कार्ल मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को ज्यादा महत्व दिया जाता हो पर हमारे देश में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक नये समाजवाद को जन्म दिया। चाहे लोक नायक जयप्रकाश हों, आचार्य नरेंद्र देव हों, मधु लिमये हों,  मधु दंडवते हों, चौधरी चरण सिंह या फिर किशन पटनायक। लोहिया जी की भाषा शैली में इन सबसे अधिक धार थी। यही वजह रही कि चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद चंद्रशेखर सिंह का दामन थामने वाले नेताजी ने 5 नवम्बर 1992 डॉ. राम मनोहर लोहिया की नीतियों पर चलते हुए समाजवादी पार्टी की स्थापना की।  इन सबके बीच नेताजी पर तरह-तरह के आरोप लगे पर यह उनका संघर्ष ही था कि केंद्र में रक्षा मंत्री और तीन बार मुख्यमंत्री बनने बाद 2012 में उन्होंने पूर्ण बहुमत के साथ अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया।
   ऐसा नहीं कि नोटबंदी पर ही नेताजी संघियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे हों। 1990 में जब राम मंदिर निर्माण के नाम पर संघियों की अगुआई में विवादित ढांचे को गिराने का प्रयास किया गया तो उस समय मुख्यमंत्री पद पर विराजमान नेताजी ने कारसेवकों पर गोलियां भी चलवा कर विवादित ढांचे को बचाया था। आज की तारीख में भले ही उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादियों की सरकार चल रही हो पर कुल मिलाकर देश में समाजवाद कमजोर हुआ है। यही वजह है कि कांग्रेस के कमजोर होने पर जिस जगह समाजवादियों को होना चाहिए था वहां आज संघी खड़े हैं।
   दरअसल जिस गैर कांग्रेसवाद का नारा आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दे रहे हैं, यह नारा किसी समय डॉ. राम मनोहर लोहिया ने दिया था। इसमें भी दो राय नहीं कि कांग्रेस का विरोध करते-करते ही समाजवादी मजबूत हुए हैं। यही वजह है कि जब भी समाजवादी कांग्रेस से सटे हैं तभी वे कमजोर हुए। यह जानते हुए ही अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से गठबंधन नहीं होने दिया।
   नरेंद्र मोदी ने भी आम चुनाव में इसी का फायदा उठाया था। आम चुनाव के प्रचार में उन्होंने लोहिया व जेपी की नीतियों का हवाला देते हुए समाजवादियों को जमकर निशाना साधा था। उसका उन्हें फायदा भी मिला। अब जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गैर संघवाद का नारा दिया तो वह इस नारे को ज्यादा हवा न दे पाए। समय की नजाकत को पहचानते हुए नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री की नोटबंदी की योजना का समर्थन कर रहे हैं। वह बात दूसरी है कि जदयू को छोड़कर पूरा विपक्ष इस योजना के विरोध में सड़कों पर आ गया है। ऐसे में कैसे गैर संघवाद का नारा बुलंद होगा और कैसे समाजवाद मजबूत होगा, इस पर समाजवादियों को मंथन की जरूरत है। यह सब अखिलेश यादव बखूबी समझ रहे हैं। वह जान गए हैं कि लंबी पारी खेलने के लिए उन्हें लोहिया की नीतियों पर आधारित समाजवाद का नारा बुलंद करना होगा।
   समाजवादियों को यह समझना होगा कि नरेन्द्र मोदी ने तर्कों के साथ जनता को प्रभावित किया है। वह लोगों को यह समझाने में कामयाब रहे हैं कि जो समाजवादी गैर कांग्रेसवाद का नारा देकर आगे बढ़े थे, वे अपने स्वार्थ के लिए समय-समय पर कांग्रेस से सटते रहे हैं। संघी देश के बड़े आंदोलन में समाजवादियों के साथ रहे हैं।  दरअसल समाजवादियों की समय-समय पर हुई गलती से समाजवाद कमजोर हुआ है। इमरजेंसी के बाद देश में जनता पार्टी की सरकार बनने पर जिन चरण सिंह ने अपने गृहमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी कराई,  वह ही इंदिरा गांधी के सहयोग प्रधानमंत्री बन गए। कुछ ही दिन बाद कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह देखते रह रहे। समाजवादियों के पक्ष में बना माहौल तो खराब हुआ ही साथ ही समाजवादी भी बिखर गए। जनता पार्टी में संघी भी समाजवादियों के साथ थे। 1989 में जब समाजवादियों के प्रयास से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो संघियों ने सरकार को समर्थन दिया। राम मंदिर निर्माण आंदोलन में बिहार में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी होने पर जब भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया तो चंद्रशेखर सिंह ने राजीव गांधी क बहकावे में आकर कांग्रस के समर्थन से अपनी सरकार बना ली। कांग्रेस ने कुछ ही महीने बाद अपने स्वभाव के अनरूप सरकार से समर्थन वापस ले लिया तथा सरकार गिर गई। 1996 में भी यही हुआ समाजवादियों ने कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई। इस बीच एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल दो प्रधानमंत्री ने पर समय पूरा नहीं कर पाए। कहना गलत न होगा कि ज्यों-ज्यों समाजवादी मजबूत हुए, त्यों-त्यों कांग्रेस ने उनको समर्थन देकर हाथ खींचा और कमजोर किया।
    अब देखना यह है कि 1980 में बनी पार्टी देश पर पूर्ण बहुमत के साथ राज कर रही है और समाजवादी नेता न तो चरण सिंह के लोकदल को आगे बढ़ा पाए और न ही कई दलों के विलय से बनी जनता पार्टी को और न ही जनता दल को। समाजवादी नेताओं ने एकजुट न होकर अपने-अपने दल बना लिए। राम विलास पासवान ने लोजपा, लालू प्रसाद यादव ने राजद तो शरद यादव और नीतीश कुमार ने जदयू पार्टियां बना लीं। जनसंघ से निकले नेताओं की एक ही पार्टी भारतीय जनता पार्टी रही। ऐसे में समाजवाद का कमजोर होना स्वभाविक था। यह भी कहा जा सकता है कि समाजवादी तो मजबूत हो गए पर समाजवाद कमजोर ही रहा। ऐसे में युवा समाजवादी नेता के रूप में राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर छाए अखिलेश यादव की जिम्मेदारी बन जाती है कि लोहिया जी नीतियों वाले समाजवाद का झंडा बुलंद  करें। 
   अखिलेश यादव का प्लस प्वांइट यह है कि पारिवारिक और वरिष्ठ नेताओं के दबाव में किए गए काम के चलते भले ही उन्हें तरह-तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा हो पर व्यक्तिगत रूप से उन्हें किसी ने गलत नहीं ठहराया। यही उनका लोहिया जी से प्रेरित समाजवाद है कि नेताजी के तमाम प्रयास के बावजूद वह अमर सिंह को पचाने को तैयार नहीं। अखिलेश यादव की रणनीति है कि प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में युवा समाजवादियों की एक बड़ी फौज तैयार की जाए। उत्तर प्रदेश का चुनाव भी वह इन्ही युवाओं के बल पर जीतने में लगे हैं।

Tuesday, 8 November 2016

अखिलेश को अपने दम पर लड़ना होगा चुनाव !

मुख्यमंत्री बनने के बाद तमाम दबाव को झेलते हुए सरकार चलाने वाले अखिलेश यादव को न चाहते हुए भी कई तरह के समझौते करने पड़े। यही वजह रही कि विरोधी दल प्रदेश में चार मुख्यमंत्री होने की बात करने लगे थे। इसे अखिलेश यादव की विचारधारा कहें या फिर दृढ़ इच्छा कि सरकार के अंतिम दौर में उन्होंने पार्टी में जो स्टैंड लिया वह समाजवाद के लिए मिसाल बन गया। विचारधारा, पार्टी और प्रदेश के लिए वह न केवल व्यवस्था बल्कि अपने चाचा-पिता पार्टी के मुखिया से भी टकरा गए।
समय-समय पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के दबाव में समझौते करने की वजह फजीहत झेलने वाले अखिलेश यादव ने जब निर्णय लिया तो राजनीतिक जगत को भौचक्का कर दिया। निर्णय भी ऐसा कि किसी भी कीमत में वह अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करेंगे। विचारधारा भी समाजवाद के प्रेरक डॉ. राम मनोहर लोहिया की। जिन परिस्थिति में अखिलेश यादव ने विचारधारा और व्यवस्था को लेकर दम भरा है, उनके इस निर्णय ने लोहिया जी के फैसलों की यादें ताजा कर दी। आजाद भारत में लोहिया जी के बाद अन्याय का इस हद तक यदि किसी ने विरोध किया है तो वह अखिलेश यादव हैं। भले ही नेताजी महागठबंधन की कवायद में लगे हों पर अखिलेश यादव का आत्मविश्वास ही है कि विचारधारा, जुझारूपन, प्रदेश का विकास और युवाओं के बल पर वह चुनाव जीतने निकल पड़े हैं।
5 नवम्बर को लखनऊ में मनाए गए समाजवादी पार्टी के स्थापना दिवस पर लोहिया जी के जब मैं मर जाऊंगा तब लोग मुझे याद करेंगे के कथन का हवाला देतेे हुए अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव की ओर इशारा करते हुए कहा कि कुछ लोग जब समझेंगे जब पार्टी में कुछ नहीं बचेगा तो उनकी सोच पर बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया। उन्हें भेंट की गई तलवार के बारे में तलवार तो देते हो पर चलाने का अधिकार नहीं देते कहकर वह बहुत कुछ कह गए।
इन सब के बीच अखिलेश यादव को सोचना होगा कि उनके इस स्टैंड से जहां साफ-सुथरी छवि वाले समाजवादियों में उनके प्रति आस्था बढ़ी है वहीं राजनीतिक के क्षेत्र में करियर बनाने वाले युवा अखिलेश यादव की अगुआई में राजनीतिक सफर शुरू करने की सोचने लगे हैं। अखिलेश यादव को यह भी देखना होगा कि लंबे समय से पुराने समाजवादियों पर अपने पथ से भटकने के आरोप लग रहे हैं। ऐसे में उनपर बहुत कुछ निर्भर करता है। आज की तारीख में देश जिस हालात से जूझ रहा है। ऐसे में सच्ची समाजवादी विचारधारा ही है जो सभी वर्गों को साथ लेकर देश को विकास के रास्ते पर ले जा सकती है।
उत्तर प्रदेश में चल रही महागठबंधन कवायद से अखिलेश यादव को नुकसान ही नुकसान होगा। यदि यह महागठबंधन चुनाव जीतता है तो इस जीत का श्रेय विभिन्न पार्टियों के बड़े नेता ले जाएंगे और उनका कद घटेगा। महागठबंधन के रूप में चुनाव लड़ने से अपनी पार्टियों के समाजवाद से भटके नेताओं तथा अन्य दलों की वजह उनकी छवि भी धूमिल होगी। साथ ही जिन युवाओं का रुझान अखिलेश यादव के प्रति बढ़ा है वह भी प्रभावित होगा। अखिलेश यादव को लंबी पारी खेलने के लिए युवा समाजवादियों की अगुआई करते हुए अपने दम पर चुनाव लड़ना होगा। अखिलेश यादव की अगुआई में देश युवा समाजवादियों की बड़ी फौज खड़ी होने की पूरी संभावनाएं है। यदि अखिलेश यादव ने अपने चेहरे पर यह चुनाव जीत लिया तो आने वाले समय में पुराने समाजवादी भी अखिलेश यादव की अगुआई में समाजवाद का नारा बुलंद करते दिखाई देंगे और देश में एक नए समाजवाद की स्थापना होगी।