Saturday, 28 May 2016

लोहिया के 'कांग्रेस मुक्त भारत" के नारे को पूरा करते संघी

   एक समय प्रख्यात समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 'कांग्रेस मुक्त भारत" का नारा दिया था तो आज की राजनीति में देश को विकल्प देने निकले उनके अनुयाई नीतीश कुमार ने 'संघ मुक्त भारत" का नारा दिया है। नीतीश कुमार का नारा कब पूरा होगा यह तो समय बताएगा पर लोहिया का नारा पूरा होते दिखाई देने लगा है। दिलचस्प बात यह है कि इस नारे को उनके अनुयाई पूरा नहीं कर रहे हैं बल्कि वे संघी कर रहे हैं जिनसे उनके अनुयाई देश को मुक्त कराना चाहते हैं। खुद नीतीश कुमार कांग्रेस की मदद से बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। जेपी आंदोलन को छोड़ दें तो अधिकतर समाजवादी किसी न किसी रूप में कांग्रेस से उपकृत होकर उसे मजबूत करते रहे हैं। हां संघियों ने जहां कांग्रेस के खिलाफ लड़ी जाने वाली हर लड़ाई में समाजवादियों का साथ दिया वहीं न कभी कांग्रेस की मजबूती में सहयोग दिया आैर न ही कांग्रेस की मदद ली। चाहे देश को विकल्प देने का दावा कर रहे नीतीश कुमार हों, प्रधानमंत्री पद का सपना संजोए नेताजी हों या फिर नेताजी के प्रधानमंत्री बनने में रोड़ा अटकाने वाले राजद प्रमुख लालू प्रसाद या फिर समय-समय पर कांग्रेस को कोसने वाले वामपंथी, ये सब कभी न कभी कांग्रेस से सटे हैं। वामपंथियों ने तो पश्चिमी बंगाल में इसका खामियाजा भी भुगत लिया। कांग्रेस से गठबंधन क्या किया कि कांग्रेस से ही पिछड़ गए, जिस तरह से कांग्रेस ने पहले दिल्ली खोई आैर अब पूर्वोत्तर में असम व केरल भी उसके हाथ से निकल गए। कांग्रेस की दुर्दशा से तो ऐसा ही लग रहा है कि आने वाले समय में कहीं उत्तरांचल व कर्नाटक भी कांग्रेस के हाथ से न निकल जाए।
    कांग्रेस के विरोध की बात करें तो आजादी की लड़ाई में भी कांग्रेसियों की सत्ता ललक से नाराज डॉ. राम मनोहर लोहिया ने समाजवादियों का एकजुट करना शुरू कर दिया था। यही वजह रही कि उन्होंने आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का जमकर विरोध किया तथा 'कांग्रेस मुक्त भारत" का नारा दिया। यह लोहिया की समाजवादी विचारधारा ही थी कि वह अंतिम समय तक कांग्रेस की नीतियों से टकराते रहे। 70 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अराजकता के खिलाफ डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथी रहे लोक नायक जयप्रकाश के नेतृत्व में समाजवादी एकजुट हुए आैर देश में बड़ा आंदोलन हुआ। इस आंदोलन में संघियों ने आगे बढ़कर समाजवादियों का साथ किया। हां इमरजेंसी में कुछ संघियों पर इंदिरा गांधी से माफी मांगकर जेल से बाहर आने के आरोप भी लगे थे। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो संघी भी सरकार में शामिल हुए। दरअसल जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। जनता पार्टी व संघ की दोहरी सदस्यता पर विवाद होने पर 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। यह संघियों का कांग्रेस से खिलाफत ही थी कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स का मुद्दा उठा तो संघियों ने फिर से समाजवादियों के साथ दिया। 1989 में जब जनता दल की सरकार की सरकार बनी तो संघियों ने सरकार को बाहर से समर्थन दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने पर आरक्षण के खिलाफ भड़के आंदोलन को भारतीय जनता पार्टी ने कैश कराया तथा मौके की नजाकत को भांपते हुए तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण का मुद्दा सुलगा दिया तथा मंदिर निर्माण के लिए देश में रथयात्रा निकालने चल पड़े। यात्रा के बिहार में प्रवेश करने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के रथयात्रा रोक देने पर भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस की मदद से चंद्रशेखर सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। 1996 में समाजवादियों ने कांग्रेस की मदद से फिर सरकार बनाई मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए।
    दरअसल कामरेड सुरजीत सिंह ने मुलायम सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए रखा तो लालू प्रसाद ने इसका विरोध कर दिया। बाद में एचडी देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया। मुलायम सिंह को रक्षामंत्री पद पर संतोष करना पड़ा। जहां तक कांग्रेस की मदद की बात है तो लालू प्रसाद भी कांग्रेस की मदद से रेलमंत्री रहे हैं। नीतीश कुमार भारत को संघमुक्त करने के लिए कांग्रेस से भी मदद मांग रहे हैं। कुल मिलाकर समाजवादी भले ही अपने को लोहिया का अनुयाई बताते घूम रहे हों पर ये लोग लोहिया के नारे को भूल गए हैं। जिन पंडित जवाहर लाल नेहरू को लोहिया पानी पी-पीकर गाली देते थे, उन नेहरू की तारीफ में अपने लोहिया का असली अनुयाई कहने वाले मुलायम सिंह यादव कसीदे पढ़ चुके हैं।
    लो
हिया वंशवाद, जातिवाद व पूंजीवाद के खिलाफ थे पर आज के तथाकथित समाजवादियों में ये खूबियां बखूबी देखी जा रही हैं। यही वजह रही कि 2014 का आम चुनाव को जीतने के लिए नरेंद्र मोदी ने लोहिया व जेपी की नीतियों का हवाले देते हुए समाजवादियों पर जमकर निशाना साधा था। उसका उन्हें फायदा भी हुआ। माहौल को भांपकर कर ही उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। नीतीश कुमार को समझना होगा कि भले ही उन्होंने संघमुक्त भारत का नारा दे दिया हो पर नरेंद्र मोदी लोहिया के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे का हवाला देते हुए समाजवादियों फिर से कटघरे में खड़ा करेंगे। जिस तरह से मोदी गांधी परिवार को दरकिनार कर देश की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाले क्रांतिकारियों को सम्मान दिलवा रहे हैं उससे तो यही लग रहा है कि नरेंद्र मोदी ने भाजपा में भी एक नया समाजवाद पैदा किया है। जहां वह आजादी की लड़ाई में गरम दल के नेताओं को तवज्जो दे रहे हैं वहीं प्रख्यात समाजवादियों का भी जमकर गुणगान करते देखे जा रहे हैं। भले ही दिखावा हो रहा हो पर राष्ट्रवाद के नाम पर देश में देश पर मर-मिटने वालों के नामों पर भी चर्चा होने लगी है।




Sunday, 22 May 2016

... तो 'पीके" चलाएगा देश

    जुझारू, जमीनी, कत्र्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं के बल पर चुनाव जीतने का दावा करने वाले नेता कहने को तो चुनावी रणनीति बनाने के लिए तरह-तरह की कमेटी बनाते हैं। एक से बढ़कर एक अनुभवी नेता को चुनाव जीतने के लिए लगाया जाता है। कार्यकर्ताओं को संगठन की रीढ़ बताया जाता है। सत्तारूढ़ दल काम के बल पर चुनावी समर में जाते हैं पर आज के बदलते राजनीतिक दौर में जिस तरह से मैनेज कर चुनाव लड़े जा रहे हैं उससे तो ऐसा ही लग रहा है कि जैसे दलों को कार्यकर्ताओं व काम की जरूरत कम मैनेजरों की ज्यादा है।
   देश की राजनीति में 'पीके" एक ऐसा नाम जुड़ गया है जो सभी दलों के सांगठनिक ढांचे पर भारी पड़ दिखाई दे रहा है। राजनीतिक अनुभव को चिढ़ाता प्रतीत हो रहा है। कहा जा रहा है कि भाजपा ने आम चुनाव पीके के संचालन में जीता, उसके बाद बिहार में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में भी पीके का अहम रोल रहा। अब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 'पीके" को हायर किया है। भले ही उप चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई हो पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पीके के दम पर चुनाव जीतने का दंभ भर रही है। पीके ने कार्यकर्ताओं में ऐसा मैसेज दिया है कि यदि उन लोगों ने उप्र चुनाव में बढ़त हासिल कर ली तो 2019 का आम चुनाव उनके लिए खुशी लेकर आएगा।
   दिलचस्प बात यह है कि चुनाव को जीतने के लिए कांग्रेस दिग्गज नहीं बल्कि पीके कार्यकर्ताओं से वार्ता कर चुनावी रणनीति बना रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि इस तरह से ही मैनेजर चुनावी रणनीति बनाते रहें तो राजनीतिक अनुभव किस काम का कार्यकर्ता अनुभवी नेताओं से राजनीतिक पाठ क्यों सीखेंगे ? जो मैनेजर चुनाव जिताने का माद्दा रखते हैं उनसे अच्छा राजनीतिक पाठक कौन पढ़ा सकता है ? देश में गर्मी, सर्दी, झेलने वाले कार्यकर्ताओं की फिर क्या जरूरत है ? वातानुकूलित कमरों में बैठकर अच्छी राजनीति की जा सकेगी। वैसे भी देश की राजनीति बहुत तेजी से वातानुकूलित कमरों की ओर भाग रही है। यदि राजनीति इसी रूप में ढलती रही तो देश की राजनीति जनता की नहीं बल्कि आंकड़ों की होकर रह जाएगी। कार्यकर्ता जनता के बीच में पहचान न बनाकर पीके जैसे मैनेजरों के संरक्षण में रहेंगे तथा चुनाव जीतने की राजनीति सीखेंगे। देश की राजनीति में डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार बल्लभ पटेल, इंदिरा गांधी, लोक नायक जयप्रकाश, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर सिंह, चौधरी चरण सिंह जैसे आदर्श दिग्गजों की जगह पीके जैसे मैनजर लेने लगेंगे।
   देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता कि लंबे समय तक देश की बागडोर संभालने वाले कांग्रेस उत्तर प्रदेश चुनाव पीके के बल पर जीतने की रणनीति बना रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में पीके की मदद लेने की बातें सामने आ रही हैं। ये वे दल हैं जो देश को नेतृत्व देने का दंभ भरते घूम रहे हैं। यदि पीके की चुनावी रणनीति इतनी प्रभावकारी है तो फिर राजनीतिक दलों को इन जैसे नेताओं की जरूरत क्या ? यह भी कहा जा सकता है कि देश के राजनीतिक दिग्गजों को अपनी प्रतिभा व काम पर भरोसा नहीं रह गया है। या फिर इन्हें लगता है कि ये लोग जनता पर ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं, जिससे इन्हें वोट मिल सके। यदि पीके देश की राजनीति में इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं तो फिर देश की बागडोर पीके को ही क्यों न सौंप दी जाए। यदि पीके चुनाव जिता सकने में सक्षम हैं तो देश भी इन लोगों से अच्छा चला लेंगे आैर अपने जैसे मैनजरों के बल पर विभिन्न प्रदेशों को भी अच्छा नेतृत्व दे देंगे।
   देश में चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल अनुभव के आधार पर रणनीति बनाते हैं तथा उसी के आधार पर चुनावी समर में उतरते हैं। सत्ता व संगठन के अनुभव के आधार पर लंबे समय तक कांग्रेस ने भी राज किया।
सपा, बसपा, राजद, जदयू के अलावा वामपंथियों ने आगे बढ़कर कार्यकर्ताओं के बल पर अपना जनाधार बनाया है। लगभग सभी दल अपने-अपने काम के आधार पर वोट मांगते देखे जा सकते हैं। इस रणनीति में संगठन के नेतृत्व का अहम रोल माना जाता रहा है पर आज के  इस बदले राजनीतिक दौर में जिस तरह से पीके जैसे मैनेजरों को चुनावी रणनीति की इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी जा रही है यह न केवल राजनीतिक दलों बल्कि देश के लिए भी घातक है। यदि इसी तरह से मैनेजरों के बल पर चुनाव लड़े व जीते जाते रहेंगे तो कौन सा दल संगठन बनाएगा आैर कौन सी सरकार काम करेगी ? पैसों के बल पर मैनेजर हायर करे जाएंगे तथा चुनाव जीतकर जनता के खून-पसीने की कमाई पर एशोआराम की जिंदगी बिताई जाएगी।