हमारे संविधान में देश
को चलाने के लिए ऐसी व्यवस्था की गई है कि कहीं पर कोई समस्या पैदा होती है
तो उसके निराकरण के लिए विभिन्न विभाग स्थापित किए गए हैं। वैसे तो देश
में विभिन्न एजेंसियां देश की व्यवस्था को संभाल रही हैं पर चार स्तम्भ
न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका आैर मीडिया महत्वपूर्ण रूप से कारगर
माने जाते हैं। इनमें से भी हम लोग न्यायपालिका को सर्वोपरि मानते हैं। देश
में कोई कानून बनाना होता है या फिर संशोधन करना होता है तो ऐसी व्यवस्था
की गई है कि केंद्र सरकार एक विधेयक लाती है उस पर चर्चा होने के बाद वह
लोकसभा व राज्यसभा से पास होकर राष्ट्रपति के पास जाता है। जब राष्ट्रपति
उस पर अपने हस्ताक्षर कर देते हैं तो वह कानून बन जाता है।
हमारे संविधान में ऐसी भी व्यवस्था भी की गई है कि यदि आपातकाल स्थिति में कोई कानून बनाना हो या उसमें संशोधन करना हो तो संबंधित मंत्रालय की अनुमति के बाद बिना लोकसभा आैर राज्य सभा के केबिनेट में एक अध्यादेश पास कराया जाता है तथा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के बाद वह कानून बन जाता है। काफी समय से देखने में आ रहा है कि यह व्यवस्था भले ही आपातकाल के लिए बनाई गई हो पर सरकारें पूंजीपतियों के हित तथा अपने स्वार्थ के लिए अध्यादेश ले आती हैं। यह काम अन्य सरकारों ने भी किया है आैर अब मोदी सरकार भी कर रही है। बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत करने और कोल ब्लाक के आवंटन का रास्ता प्रशस्त करने लिए केंद्र सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होते ही अध्यादेश का खेल खेलना शुरू कर दिया।
हमारे संविधान में ऐसी भी व्यवस्था भी की गई है कि यदि आपातकाल स्थिति में कोई कानून बनाना हो या उसमें संशोधन करना हो तो संबंधित मंत्रालय की अनुमति के बाद बिना लोकसभा आैर राज्य सभा के केबिनेट में एक अध्यादेश पास कराया जाता है तथा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के बाद वह कानून बन जाता है। काफी समय से देखने में आ रहा है कि यह व्यवस्था भले ही आपातकाल के लिए बनाई गई हो पर सरकारें पूंजीपतियों के हित तथा अपने स्वार्थ के लिए अध्यादेश ले आती हैं। यह काम अन्य सरकारों ने भी किया है आैर अब मोदी सरकार भी कर रही है। बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत करने और कोल ब्लाक के आवंटन का रास्ता प्रशस्त करने लिए केंद्र सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होते ही अध्यादेश का खेल खेलना शुरू कर दिया।
सरकार
भूमि अधिग्रहण कानून में भी संशोधन के लिए अध्यादेश ले आई है। सरकार का
तर्क है कि सदन में विपक्ष के सहयोगात्मक रवैया न अपनाने के चलते सरकार को
यह रास्ता अपनाना पड़ा। यूपीए सरकार ने इन दस सालों में भूमि अधिग्रहण कानून
बनाकर किसानों के हित में एक अच्छा काम किया था, जिसमें एनडीए सरकार
संशोधन करने जा रही है। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने के लिए
अध्यादेश लाने वाली एनडीए सरकार को यह समझना होगा कि 2013 में पास कराए गए
भूमि सुधार कानून के पीछे देश भर में लंबे समय से चल रहे किसान आंदोलन,
आदिवासी आंदोलन की भूमिका थी। इस कानून के बल पर ही किसानों-आदिवासियों की
भूमि के सरकारी या गैर सरकारी तरीके से अधिग्रहण को इन लोगों की सहमति को
जोड़ा गया था। साथ ही मुआवजा राशि भी इतनी रखी गई जिसके चलते उनकी आर्थिक
स्थिति सुधर सके। यही वजह थी कि कॉरपोरेट लॉबी यूपीए सरकार के विरु द्ध हो
गई थी। भले ही प्रधानमंत्री अपने भाषणों में किसानों की चिंता जताते घूम
रहे हों पर विकास परियोजनाओं और कॉरपोरेट लाबी के दबाव के चलते यह सरकार
खदान कानून 1885, परमाणु ऊर्जा कानून 1962, रेलवे कानून 1989 आैर नेशनल
हाइवे कानून 1956 जैसे 13 केंद्रीय कानूनों को नए भूमि अधिग्रहण कानून के
दायरे से बाहर करने जा रही है।
सरकार का तर्क है इस संशोधन से किसानों को उचित मुआवजा दिया जाएगा। तो यह माना जाए कि अब भूमि अधिग्रहण में किसानों की सहमति नहीं ली जाएगी। तो यह संशोधन किसानों के हित में होगा या पूंजपीतियों के ? मान लिया जाए कि किसानों को आपने उचित मुआवजा दे भी दिया, तो उनका रोजगार तो आप उनकी बिना रजामंदी के छीन ही लेंगे। भूमि अधिग्रहण कानून पर अध्यादेश लाने के मामले में यह भी माना जा रहा है कि सरकार पूंजीपतियों के दबाव में बड़े स्तर पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण करने जा रही है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि ये दो अध्यादेश पास कराए गए आैर तीसरे की लानी की तैयारी है। वित्त मंत्री का कहना है कि इन मामलों में पहले से ही बहुत देर हो चुकी है इसलिए ये जरूरी हो गया था। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या तो महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, अपराध, बेरोजगारी आतंकवाद है। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए इनसे संबंधित कानून में संशोधन करने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा रहा है। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं मजदूर बेहाल हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए इनसे संबंधित कानून में संशोधन करने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा रहा है ? कई निजी संस्थाओं में कर्मचारियों का शोषण ही नहीं उत्पीड़न तक किया जा रहा है, उन कर्मचारियों के लिए सरकार क्या कर रही है।
इस देश का 10 फीसद तबका 90 फीसद तबके की कमाई खा रहा है। इन 90 फीसद लोगों को न्याय देने के लिए कानून बनाने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जाता। बताया जा रहा है कि इस देश का एक फीसद तबका देश की आधी संपत्ति का मालिक है आैर आैर रात दिन मेहनत कर देश के लिए काम करने वाले गरीब के पास मात्र .02 फीसद संपत्ति है। इस संपत्ति का देश में सही बंटवारा हो। ऐसा कानून बनने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं पास कराया जाता ? बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश आैर कोयला आवंटन से निश्चित रूप से सरकार को राजस्व प्राप्त होगा पर क्या देश में अध्यादेशों की व्यवस्था बस सरकार के इस्तेमाल के लिए की गई है। तो यह मान लिया जाए कि सत्ता में बैठते ही नेताओं को बस अपनी आैर अपनी सरकार की ही चिंता होती है। जिस जनता की बदौलत वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं उनके बारे में ये लोग क्या कर रहे हैं ? इस अध्यादेश की आलोचना मैं ही नहीं कर रहा हूं। विपक्ष के साथ ही संविधानविद भी कर रहे हैं।
बात अध्यादेश की चल रही तो हमें यह भी देखना होगा कि अध्यादेशों का यह खेल देश में लंबे समय से चल रहा है। भाजपा ही नहीं, कांग्रेस के साथ समाजवादियों की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं। 1970 और 1990 के दशक में संसद ने 10.6 अध्यादेश हर साल जारी किए। इनमें से महज 77.7 प्रतिशत संसद से कानून बन पाए। 1993 में 34 अध्यादेश जारी हुए। 1996-1997 में औसतन 20 से 30 अध्यादेश जारी हुए। यह संख्या 2013 में नौ तक आई लेकिन उनमें से तीन अध्यादेश दोबारा जारी किए गए।
सरकार का तर्क है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इन विधेयकों पर चर्चा नहीं करायी जा सकी तो ये अध्यादेश लाए गए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि चर्चा नहीं की गई तो क्या सत्र को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था ? इन मामलों में वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने से संबंधित वर्ष 2008 से लंबित संशोधन विधेयक से देश में 6 से 8 अरब डॉलर का पूंजी प्रवाह होगा। उनका कहना है कि वर्तमान में यह सीमा 26 प्रतिशत है। यदि हम अपने देश में व्यवस्था सही करते तो विदेशी निवेश की जरूरत ही न पड़ती। उनका कहना है कि कोयला खान (विशेष प्रावधान) बिल, 2014 को लोस ने मंजूरी दे दी, पर रास में इस पर चर्चा नहीं हो पाई। कोयले क्षेत्र पर अध्यादेश फिर से जारी होने पर निजी कंपनियों को उनके स्वयं के इस्तेमाल के लिए कोयला खानों की ई-नीलामी हो सकेगी तथा राज्य एवं केंद्रीय सार्वजनिक उपक्र मों को सीधे खानों का आवंटन किया जा सकेगा। वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि इन अध्यादेशों से जनता को किस स्थिति में कितना फायदा होगा।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ओर से बीमा क्षेत्र में एफडीआई आैर कोयला खदानों की ई-नीलामी को लेकर दो अध्यादेशों पर हस्ताक्षर करने के बाद केंद्र सरकार की सहयोगी पार्टी शिवसेना का यह कहना कि अध्यादेशों का रास्ता अपनाने से अगले छह महीने तक 'केंद्र के सिर पर तलवार लटकती" रहेगी। अपने आप में अध्यादेश लाने के तरीके की आलोचना है। संकट का भांपते हुए शिवसेना ने अपने मुखपत्र 'सामना" में भी कहा है कि सरकार के पास राज्यसभा में जरूरी संख्या बल नहीं है। ऐसे में अध्यादेश का रास्ता सरकार के सिर पर लटकती तलवार की तरह होगा।"
इन सबके के बीच प्रश्न उठता है कि तमान कानून बनने के बाद आखिर गरीबी कम क्यों नहीं हो रही है ? किसानों की समस्याएं क्यों बढ़ती जा रही है ? इस देश की भुखमरी, बेचारगी, उत्पीड़न, शोषण, समस्याएं क्यों नहीं कम हो रही हैं। क्यों पूंजीपति इस देश की संपत्ति हथियाए बैठे हैं ? क्यों गरीब बेसहाय है ?
सरकार का तर्क है इस संशोधन से किसानों को उचित मुआवजा दिया जाएगा। तो यह माना जाए कि अब भूमि अधिग्रहण में किसानों की सहमति नहीं ली जाएगी। तो यह संशोधन किसानों के हित में होगा या पूंजपीतियों के ? मान लिया जाए कि किसानों को आपने उचित मुआवजा दे भी दिया, तो उनका रोजगार तो आप उनकी बिना रजामंदी के छीन ही लेंगे। भूमि अधिग्रहण कानून पर अध्यादेश लाने के मामले में यह भी माना जा रहा है कि सरकार पूंजीपतियों के दबाव में बड़े स्तर पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण करने जा रही है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि ये दो अध्यादेश पास कराए गए आैर तीसरे की लानी की तैयारी है। वित्त मंत्री का कहना है कि इन मामलों में पहले से ही बहुत देर हो चुकी है इसलिए ये जरूरी हो गया था। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या तो महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, अपराध, बेरोजगारी आतंकवाद है। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए इनसे संबंधित कानून में संशोधन करने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा रहा है। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं मजदूर बेहाल हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए इनसे संबंधित कानून में संशोधन करने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा रहा है ? कई निजी संस्थाओं में कर्मचारियों का शोषण ही नहीं उत्पीड़न तक किया जा रहा है, उन कर्मचारियों के लिए सरकार क्या कर रही है।
इस देश का 10 फीसद तबका 90 फीसद तबके की कमाई खा रहा है। इन 90 फीसद लोगों को न्याय देने के लिए कानून बनाने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जाता। बताया जा रहा है कि इस देश का एक फीसद तबका देश की आधी संपत्ति का मालिक है आैर आैर रात दिन मेहनत कर देश के लिए काम करने वाले गरीब के पास मात्र .02 फीसद संपत्ति है। इस संपत्ति का देश में सही बंटवारा हो। ऐसा कानून बनने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं पास कराया जाता ? बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश आैर कोयला आवंटन से निश्चित रूप से सरकार को राजस्व प्राप्त होगा पर क्या देश में अध्यादेशों की व्यवस्था बस सरकार के इस्तेमाल के लिए की गई है। तो यह मान लिया जाए कि सत्ता में बैठते ही नेताओं को बस अपनी आैर अपनी सरकार की ही चिंता होती है। जिस जनता की बदौलत वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं उनके बारे में ये लोग क्या कर रहे हैं ? इस अध्यादेश की आलोचना मैं ही नहीं कर रहा हूं। विपक्ष के साथ ही संविधानविद भी कर रहे हैं।
बात अध्यादेश की चल रही तो हमें यह भी देखना होगा कि अध्यादेशों का यह खेल देश में लंबे समय से चल रहा है। भाजपा ही नहीं, कांग्रेस के साथ समाजवादियों की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं। 1970 और 1990 के दशक में संसद ने 10.6 अध्यादेश हर साल जारी किए। इनमें से महज 77.7 प्रतिशत संसद से कानून बन पाए। 1993 में 34 अध्यादेश जारी हुए। 1996-1997 में औसतन 20 से 30 अध्यादेश जारी हुए। यह संख्या 2013 में नौ तक आई लेकिन उनमें से तीन अध्यादेश दोबारा जारी किए गए।
सरकार का तर्क है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इन विधेयकों पर चर्चा नहीं करायी जा सकी तो ये अध्यादेश लाए गए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि चर्चा नहीं की गई तो क्या सत्र को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था ? इन मामलों में वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने से संबंधित वर्ष 2008 से लंबित संशोधन विधेयक से देश में 6 से 8 अरब डॉलर का पूंजी प्रवाह होगा। उनका कहना है कि वर्तमान में यह सीमा 26 प्रतिशत है। यदि हम अपने देश में व्यवस्था सही करते तो विदेशी निवेश की जरूरत ही न पड़ती। उनका कहना है कि कोयला खान (विशेष प्रावधान) बिल, 2014 को लोस ने मंजूरी दे दी, पर रास में इस पर चर्चा नहीं हो पाई। कोयले क्षेत्र पर अध्यादेश फिर से जारी होने पर निजी कंपनियों को उनके स्वयं के इस्तेमाल के लिए कोयला खानों की ई-नीलामी हो सकेगी तथा राज्य एवं केंद्रीय सार्वजनिक उपक्र मों को सीधे खानों का आवंटन किया जा सकेगा। वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि इन अध्यादेशों से जनता को किस स्थिति में कितना फायदा होगा।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ओर से बीमा क्षेत्र में एफडीआई आैर कोयला खदानों की ई-नीलामी को लेकर दो अध्यादेशों पर हस्ताक्षर करने के बाद केंद्र सरकार की सहयोगी पार्टी शिवसेना का यह कहना कि अध्यादेशों का रास्ता अपनाने से अगले छह महीने तक 'केंद्र के सिर पर तलवार लटकती" रहेगी। अपने आप में अध्यादेश लाने के तरीके की आलोचना है। संकट का भांपते हुए शिवसेना ने अपने मुखपत्र 'सामना" में भी कहा है कि सरकार के पास राज्यसभा में जरूरी संख्या बल नहीं है। ऐसे में अध्यादेश का रास्ता सरकार के सिर पर लटकती तलवार की तरह होगा।"
इन सबके के बीच प्रश्न उठता है कि तमान कानून बनने के बाद आखिर गरीबी कम क्यों नहीं हो रही है ? किसानों की समस्याएं क्यों बढ़ती जा रही है ? इस देश की भुखमरी, बेचारगी, उत्पीड़न, शोषण, समस्याएं क्यों नहीं कम हो रही हैं। क्यों पूंजीपति इस देश की संपत्ति हथियाए बैठे हैं ? क्यों गरीब बेसहाय है ?
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