Friday, 23 January 2015

दलितों के खेवनहार बन तीसरी धारा बनाने की फिराक में मांझी

     नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने वाले नीतीश कुमार अजीब सी उलझन में पड़ गए हैं। जिस मांझी को उन्होंने अपने प्रतिनिधि के रूप में  चुना था, वह ऐसा राजनीतिक दांव चल गए कि नीतीश कुमार को कुछ बोलते नहीं बन रहा है। अभी तक जीतन मांझी की बयानबाजी को बचकना समझ रहे नीतीश कुमा को अब उनकी रणनीति समझ में आने लगी है। जिस तरह से मांझी ने एक मंझे राजनीतिज्ञ के रूप में दलितों को रिझाने की कोशिश की है उससे न केवल नीतीश बल्कि लालू प्रसाद के माथे पर भी बल पड़ गए हैं।
    दलित अफसरों की सीक्रेट मीटिंग कर जिस तरह से उन्होंने उनसे उनकी समस्याएं जानी, वह दलितों में जगह बनाने में कामयाब हो रहे हैं। जिस तरह से वह जगह-जगह दलितों को अपने हकों की लड़ाई लड़ने का आह्वान कर रहे हैं उससे दलिता में उनकी लोकप्रियता बढ़ती देखी जा रही है। जीतन मांझी के इस रुख से जदयू व राजद में तो बेचैनी है ही साथ ही लंबे समय से दलितों के बल पर राजनीति कर रहे राम विलास पासवान भी सोचने को मजबूर हो गए हैं।
     जीतन राम मांझी के इस रुख का फायदा उठाने को तैयार बैठी भाजपा   ऐसे में बिहार में एक नया दांव चल सकती है। यह जीतन कुमार मांझी का राजनीतिक कौशल ही है कि उनके कृत्य से बेहद नाराज नीतीश कुमार उन्हें पद से नहीं हटा पा रहे हैं। नीतीश कुमार को आशंका है कि उनके पद से हटाने से कहीं दलित वोटबैंक के साथ ही पदाधिकारी उनके खिलाफ न हो जाएं।
    बात बिहार की राजनीति की की जाए तो आजादी मिलते ही यहां पर सवर्णां का वर्चस्व कायम हो गया था। श्री कृष्ण सिंह लंबे ने लंबे समय तक बिहार पर राज किया। उस समय दलित व पिछड़े बिहार में शोषित माने जाते थे। 1975 में जेपी क्रांति के बाद पिछड़ों व दलितों के गठबंधन ने सवर्णांे से बिहार की राजनीति छीन ली। जेपी क्रांति ने बिहार को लालू प्रसाद, नीतीश कुमार आैर राम विलास पासवान के रूप में पिछड़े आैर दलित नेता दिए। 1989 में जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री बने लालू प्रसाद ने लगभग 15 साल तक राज किया। 
    जार्ज फर्नांडीस की अगुआई में जदयू का दामन थामने वाले नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन कर लालू प्रसाद को पछाड़ कर 2005 में बिहार की गद्दी कब्जा ली। एनडीए के संयोजक भले ही जार्ज फर्नांडीस के बाद शरद यादव रहे हों पर वर्चस्व भाजपा का ही रहा है। वैसे तो एनडीए से कई राज्यों मुख्यमंत्री रहे हैं पर बिहार से नीतीश कुमार व गुजरात से नरेंद्र मोदी की विकास के मामले में अक्सर बयानीबाजी सुनने को मिलती रही। गुजरात दंगों पर लंबे समय तक चुप रहने वाले नीतीश कुमार ने गत लोस चुनाव में भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने पर उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया उनकी जिद के चलते जदयू आैर भाजपा के गठबंधन टूट गया।
    हां भाजपा से समर्थन वापस लेने के बावजूद वह अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। आम चुनाव में प्रचंड बहुमत से नरेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया तथा अपने विश्वासपात्र जीतन मांझी को प्रदेश की बागडोर थमा दी। नीतीश कुमार के सामने इस समय दो दो बड़ी परेशानी हैं एक तो भाजपा की अगुआई में सवर्ण लामबंद हो रहे हैं वहीं  जीतन मांझी उनके लिए दिक्कत बनते जा रहे हैं। वैस राजनीति आैर युद्ध में सब कुछ जायज है। सियासत में कब कौन सा दांव चल दे जाए कहा नहीं जा सकता।
    जतीन मांझी ने भी यही किया, मौके की नजाकत को समझते हुए उन्होंने दलितों को रिझाने के लिए वह काम शुरू कर दिया, जिसे कभी लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार करते थे। वह भी सवर्णांे के खिलाफ मुखर होने लगे। शुरू में तो उनकी बयानबाजी को हल्के में लिया जा रहा था पर धीरे-धीरे असली राजनीतिक खेल समझ में आने लगा। वह एक रणनीति के तहत दलितों को आकर्षित करने वाली बयानबाजी कर रहे हैं। राजनीति देखिए कि अक्टूबर में होने जा रहे विधानभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का विजयी रथ रोकने के लिए लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने की ठानी तथा देश में सपा, जदयू, राजद, इनेलो को एक सूत्र में पिरोकर जनता परिवार को संगठित करने का बीड़ा उठाया, तो मांझी ने अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया।
     उधर लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार जनता परिवार को संगठित करने की रणनीति में मशगूल थे, इधर बिहार में मांझी ने एक आईपीएस को सुरक्षा अधिकारी तथा पटना का कमिश्नर एक दलित को बना दिया। साथ ही दलित व अनुसूचित जन जाति के लगभग 200 आईएएस, आईपीएस आैर बिहार राज्य सिविल सेवा के अफसरों के साथ एक सीक्रेट मीटिंग कर राजनीतिक हल्कों में बैचेनी पैदा कर दी। जब उनसे इस मीटिंग के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह तो नीतीश कुमार के पदचिह्नों पर चल रहे हैं। सीक्रेट मीटिंग के लिए जब उनसे कोई नहीं पूछता था तो उन्हें क्यों परेशान किया जा रहा है ? उन्हें पद से हटाने की बात पर उन्होंने कहा कि वह कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने दलित कार्ड खेलते हुए बताया कि अफसरों ने उनसे शिकायत की कि जातिगत कारणों के चलते प्रमोशन आैर अन्य मामलों में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। मांझी के अनुसार अधिकारियों का कहना था कि दलित होने के कारण कई बार उन्हें फंसा दिया जाता है जबकि वैसे ही मामलों में अन्य लोग बरी हो जाते हैं। 22 फीसद दलितों में अपनी छवि निखारने के लिए उन्होंने गत सप्ताह  25 करोड़ की लागत से बीआर अंबेडकर फाउंडेशन की स्थापना की जो दलित आैर महादलित स्कॉलर्स को अध्ययन आैर शोध में मदद करेगा। इसके अलावा हाल ही में उन्होंने गया आैर बेतिया में दलितों का आह्वान किया कि अगला मुख्यमंत्री दलित बनाने के लिए जुट जाएं। दरभंगा में भी उन्होंने दलितों को अपने मान-सम्मान व अधिकार के प्रति जागरूक  होने का कहा । गया में भी उन्होंने एक सभा के दौरान दलितों को रिझाने की कोशिश की। लोग उन्हें दलित मुख्यमंत्री के रूप में देखे इसके लिए उन्होंने कहा कि वह अपने रणकौशल से यह साबित कर देना चाहते हैं कि एक महादलित भी बेहतर तरीके से सरकार चला सकता है।
    कहा जा रहा है कि 18 जनवरी को बिहार में होने जा रही बड़ी रैली में नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद बड़ा ऐलान कर सकते हैं। चर्चा यह भी है कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री आैर लालू प्रसाद की पुत्री मीसा यादव उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हो सकती है। इस बात की जानकारी मांझी को भी है इसलिए वह नीतीश कुमार से नाराज हैं आैर पार्टी के दलित आैर पिछड़े नेताओं को अपने साथ लामबंद कर रहे हैं। भले ही वह नीतीश कुमार को अपना नेता मानते हों।
     भले ही वह यह कह रहे हैं कि जनता परिवार से नीतीश कुमार के नाम वह मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तावित करेंगे। भले ही वह देवी देवताओं से ज्यादा नीतीश कुमार को मानने की बात कर रहे हों पर नीतीश कुमार के अधिकारियों को इधर से उधर कर उन्होंने नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। नीतीश कुमार किसी भी तरह से उन्हें पद से हटाना चाहते हैं पर दलित वोटबैंक नाराज होने का खतरा मोल लेने को वह तैयार नहीं। मेरा भी यह मानना है कि राजनीतिक हल्कों में किसी भी तरह की चर्चा हो पर हाल की राजनीतिक माहौल को देखते हुए नीतीश कुमार मांझी को नहीं छेड़ंगे। यह बात उन्होंने कह भी दी है कि मांझी मुख्यमंत्री बने रहेंगे। इस राजनीतिक माहौल में भाजपा नेता गिरीराज सिंह का बयान भी महत्वपूर्ण है। 
      गिरीराज सिंह ने कहा कि मांझी को हटाने का ठीकरा नीतीश कुमार लालू प्रसाद के सिर तथा लालू प्रसाद नीतीश कुमार के सिरे फोड़ना चाहते हैं। ऐसे में उन्होंने मांझी के साथ गलत होने पर भाजपा उनके साथ होगी अपना दांव चल दिया है।

Saturday, 3 January 2015

गरीबी मिटाने को क्यों नहीं लाए जाते अध्यादेश ?

हमारे संविधान में देश को चलाने के लिए ऐसी व्यवस्था की गई है कि कहीं पर कोई समस्या पैदा होती है तो उसके निराकरण के लिए विभिन्न विभाग स्थापित किए गए हैं। वैसे तो देश में विभिन्न एजेंसियां देश की व्यवस्था को संभाल रही हैं पर चार स्तम्भ न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका आैर मीडिया महत्वपूर्ण रूप से कारगर माने जाते हैं। इनमें से भी हम लोग न्यायपालिका को सर्वोपरि मानते हैं। देश में कोई कानून बनाना होता है या फिर संशोधन करना होता है तो ऐसी व्यवस्था की गई है कि केंद्र सरकार एक विधेयक लाती है उस पर चर्चा होने के बाद वह लोकसभा व राज्यसभा से पास होकर राष्ट्रपति के पास जाता है। जब राष्ट्रपति उस पर अपने हस्ताक्षर कर देते हैं तो वह कानून बन जाता है।
     हमारे संविधान में ऐसी भी व्यवस्था भी की गई है कि यदि आपातकाल स्थिति में कोई कानून बनाना हो या उसमें संशोधन करना हो तो संबंधित मंत्रालय की अनुमति के बाद बिना लोकसभा आैर राज्य सभा के केबिनेट में एक अध्यादेश पास कराया जाता है तथा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के बाद वह कानून बन जाता है। काफी समय से देखने में आ रहा है कि यह व्यवस्था भले ही आपातकाल के लिए बनाई गई हो पर सरकारें पूंजीपतियों के हित तथा अपने स्वार्थ के लिए अध्यादेश ले आती हैं। यह काम अन्य सरकारों ने भी किया है आैर अब मोदी सरकार भी कर रही है। बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत करने और कोल ब्लाक के आवंटन का रास्ता प्रशस्त करने  लिए  केंद्र सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होते ही अध्यादेश का खेल खेलना शुरू कर दिया।
       सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में भी संशोधन के लिए अध्यादेश ले आई है। सरकार का तर्क है कि सदन में विपक्ष के सहयोगात्मक रवैया न अपनाने के चलते सरकार को यह रास्ता अपनाना पड़ा। यूपीए सरकार ने इन दस सालों में भूमि अधिग्रहण कानून बनाकर किसानों के हित में एक अच्छा काम किया था, जिसमें एनडीए सरकार संशोधन करने जा रही है। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने के लिए अध्यादेश लाने वाली एनडीए सरकार को यह समझना होगा कि 2013 में पास कराए गए भूमि सुधार कानून के पीछे देश भर में लंबे समय से चल रहे किसान आंदोलन, आदिवासी आंदोलन की भूमिका थी। इस कानून के बल पर ही किसानों-आदिवासियों की भूमि के सरकारी या गैर सरकारी तरीके से अधिग्रहण को इन लोगों की सहमति को जोड़ा गया था। साथ ही मुआवजा राशि भी इतनी रखी गई जिसके चलते उनकी आर्थिक स्थिति सुधर सके। यही वजह थी कि कॉरपोरेट लॉबी यूपीए सरकार के विरु द्ध हो गई थी। भले ही प्रधानमंत्री अपने भाषणों में किसानों की चिंता जताते घूम रहे हों पर विकास परियोजनाओं और कॉरपोरेट लाबी के दबाव के चलते यह सरकार खदान कानून 1885, परमाणु ऊर्जा कानून  1962, रेलवे कानून 1989 आैर नेशनल हाइवे कानून 1956 जैसे 13 केंद्रीय कानूनों को नए भूमि अधिग्रहण कानून के दायरे से बाहर करने जा रही है।
     सरकार का तर्क है इस संशोधन से किसानों को उचित मुआवजा दिया जाएगा। तो यह माना जाए कि अब भूमि अधिग्रहण में किसानों की सहमति नहीं ली जाएगी। तो यह संशोधन किसानों के हित में होगा या पूंजपीतियों के ? मान लिया जाए कि किसानों को आपने उचित मुआवजा दे भी दिया, तो उनका रोजगार तो आप उनकी बिना रजामंदी के छीन ही लेंगे। भूमि अधिग्रहण कानून पर अध्यादेश लाने के मामले में यह भी माना जा रहा है कि सरकार पूंजीपतियों के दबाव में बड़े स्तर पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण करने जा रही है।
    ऐसे में प्रश्न उठता है कि सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि ये दो अध्यादेश पास कराए गए आैर तीसरे की लानी की तैयारी है। वित्त मंत्री का कहना है कि इन मामलों में पहले से ही बहुत देर हो चुकी है इसलिए ये जरूरी हो गया था। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या तो महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, अपराध, बेरोजगारी आतंकवाद है। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए इनसे संबंधित कानून में संशोधन करने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा रहा है। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं मजदूर बेहाल हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए इनसे संबंधित कानून में संशोधन करने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा रहा है ? कई निजी संस्थाओं में कर्मचारियों का शोषण ही नहीं उत्पीड़न तक किया जा रहा है, उन कर्मचारियों के लिए सरकार क्या कर रही है।
     इस देश का 10 फीसद तबका 90 फीसद तबके की कमाई खा रहा है। इन 90 फीसद लोगों को न्याय देने के लिए कानून बनाने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं लाया जाता। बताया जा रहा है कि इस देश का एक फीसद तबका देश की आधी संपत्ति का मालिक है आैर आैर रात दिन मेहनत कर देश के लिए काम करने वाले गरीब के पास मात्र .02 फीसद संपत्ति है। इस संपत्ति का देश में सही बंटवारा हो। ऐसा कानून बनने के लिए कोई अध्यादेश क्यों नहीं पास कराया जाता ? बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश आैर कोयला आवंटन से निश्चित रूप से सरकार को राजस्व प्राप्त होगा पर क्या देश में अध्यादेशों की व्यवस्था बस सरकार के इस्तेमाल के लिए की गई है। तो यह मान लिया जाए कि सत्ता में बैठते ही नेताओं को बस अपनी आैर अपनी सरकार की ही चिंता होती है। जिस जनता की बदौलत वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं उनके बारे में ये लोग क्या कर रहे हैं ? इस अध्यादेश की आलोचना मैं ही नहीं कर रहा हूं। विपक्ष के साथ ही संविधानविद भी कर रहे हैं।
      बात अध्यादेश की चल रही तो हमें यह भी देखना होगा कि अध्यादेशों का यह खेल देश में लंबे समय से चल रहा है। भाजपा ही नहीं, कांग्रेस के साथ समाजवादियों की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं।  1970 और 1990 के दशक में संसद ने 10.6 अध्यादेश हर साल जारी किए। इनमें से महज 77.7 प्रतिशत संसद से कानून बन पाए। 1993 में 34 अध्यादेश जारी हुए। 1996-1997 में औसतन 20 से 30 अध्यादेश जारी हुए। यह संख्या 2013 में नौ तक आई लेकिन उनमें से तीन अध्यादेश दोबारा जारी किए गए।
      सरकार का तर्क है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इन विधेयकों पर चर्चा नहीं करायी जा सकी तो ये अध्यादेश लाए गए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि चर्चा नहीं की गई तो क्या सत्र को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था ? इन मामलों में वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने से संबंधित वर्ष 2008 से लंबित संशोधन विधेयक से देश में 6 से 8 अरब डॉलर का पूंजी प्रवाह होगा। उनका कहना है कि वर्तमान में यह सीमा 26 प्रतिशत है। यदि हम अपने देश में व्यवस्था सही करते तो विदेशी निवेश की जरूरत ही न पड़ती। उनका कहना है कि कोयला खान (विशेष प्रावधान) बिल, 2014 को लोस ने मंजूरी दे दी, पर रास में इस पर चर्चा नहीं हो पाई। कोयले क्षेत्र पर अध्यादेश फिर से जारी होने पर निजी कंपनियों को उनके स्वयं के इस्तेमाल के लिए कोयला खानों की ई-नीलामी हो सकेगी तथा राज्य एवं केंद्रीय सार्वजनिक उपक्र मों को सीधे खानों का आवंटन किया जा सकेगा। वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि इन अध्यादेशों से जनता को किस स्थिति में कितना फायदा होगा।
      राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ओर से बीमा क्षेत्र में एफडीआई आैर कोयला खदानों की ई-नीलामी को लेकर दो अध्यादेशों पर हस्ताक्षर करने के बाद केंद्र सरकार की सहयोगी पार्टी शिवसेना का यह कहना कि अध्यादेशों का रास्ता अपनाने से अगले छह महीने तक 'केंद्र के सिर पर तलवार लटकती" रहेगी। अपने आप में अध्यादेश लाने के तरीके की आलोचना है। संकट का भांपते हुए शिवसेना ने अपने मुखपत्र 'सामना" में भी कहा है कि सरकार के पास राज्यसभा में जरूरी संख्या बल नहीं है। ऐसे में अध्यादेश का रास्ता सरकार के सिर पर लटकती तलवार की तरह होगा।" 
    इन सबके के बीच प्रश्न उठता है कि तमान कानून बनने के बाद आखिर गरीबी कम क्यों नहीं हो रही है ? किसानों की समस्याएं क्यों बढ़ती जा रही है ? इस देश की भुखमरी, बेचारगी, उत्पीड़न, शोषण, समस्याएं क्यों नहीं कम हो रही हैं। क्यों
पूंजीपति इस देश की संपत्ति हथियाए बैठे हैं ? क्यों गरीब बेसहाय है ?