नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने वाले नीतीश कुमार अजीब सी उलझन में पड़ गए हैं। जिस मांझी को उन्होंने अपने प्रतिनिधि के रूप में चुना था, वह ऐसा राजनीतिक दांव चल गए कि नीतीश कुमार को कुछ बोलते नहीं बन रहा है। अभी तक जीतन मांझी की बयानबाजी को बचकना समझ रहे नीतीश कुमा को अब उनकी रणनीति समझ में आने लगी है। जिस तरह से मांझी ने एक मंझे राजनीतिज्ञ के रूप में दलितों को रिझाने की कोशिश की है उससे न केवल नीतीश बल्कि लालू प्रसाद के माथे पर भी बल पड़ गए हैं।
दलित अफसरों की सीक्रेट मीटिंग कर जिस तरह से उन्होंने उनसे उनकी समस्याएं जानी, वह दलितों में जगह बनाने में कामयाब हो रहे हैं। जिस तरह से वह जगह-जगह दलितों को अपने हकों की लड़ाई लड़ने का आह्वान कर रहे हैं उससे दलिता में उनकी लोकप्रियता बढ़ती देखी जा रही है। जीतन मांझी के इस रुख से जदयू व राजद में तो बेचैनी है ही साथ ही लंबे समय से दलितों के बल पर राजनीति कर रहे राम विलास पासवान भी सोचने को मजबूर हो गए हैं।
जीतन राम मांझी के इस रुख का फायदा उठाने को तैयार बैठी भाजपा ऐसे में बिहार में एक नया दांव चल सकती है। यह जीतन कुमार मांझी का राजनीतिक कौशल ही है कि उनके कृत्य से बेहद नाराज नीतीश कुमार उन्हें पद से नहीं हटा पा रहे हैं। नीतीश कुमार को आशंका है कि उनके पद से हटाने से कहीं दलित वोटबैंक के साथ ही पदाधिकारी उनके खिलाफ न हो जाएं।
बात बिहार की राजनीति की की जाए तो आजादी मिलते ही यहां पर सवर्णां का वर्चस्व कायम हो गया था। श्री कृष्ण सिंह लंबे ने लंबे समय तक बिहार पर राज किया। उस समय दलित व पिछड़े बिहार में शोषित माने जाते थे। 1975 में जेपी क्रांति के बाद पिछड़ों व दलितों के गठबंधन ने सवर्णांे से बिहार की राजनीति छीन ली। जेपी क्रांति ने बिहार को लालू प्रसाद, नीतीश कुमार आैर राम विलास पासवान के रूप में पिछड़े आैर दलित नेता दिए। 1989 में जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री बने लालू प्रसाद ने लगभग 15 साल तक राज किया।
बात बिहार की राजनीति की की जाए तो आजादी मिलते ही यहां पर सवर्णां का वर्चस्व कायम हो गया था। श्री कृष्ण सिंह लंबे ने लंबे समय तक बिहार पर राज किया। उस समय दलित व पिछड़े बिहार में शोषित माने जाते थे। 1975 में जेपी क्रांति के बाद पिछड़ों व दलितों के गठबंधन ने सवर्णांे से बिहार की राजनीति छीन ली। जेपी क्रांति ने बिहार को लालू प्रसाद, नीतीश कुमार आैर राम विलास पासवान के रूप में पिछड़े आैर दलित नेता दिए। 1989 में जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री बने लालू प्रसाद ने लगभग 15 साल तक राज किया।
जार्ज फर्नांडीस की अगुआई में जदयू का दामन थामने वाले नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन कर लालू प्रसाद को पछाड़ कर 2005 में बिहार की गद्दी कब्जा ली। एनडीए के संयोजक भले ही जार्ज फर्नांडीस के बाद शरद यादव रहे हों पर वर्चस्व भाजपा का ही रहा है। वैसे तो एनडीए से कई राज्यों मुख्यमंत्री रहे हैं पर बिहार से नीतीश कुमार व गुजरात से नरेंद्र मोदी की विकास के मामले में अक्सर बयानीबाजी सुनने को मिलती रही। गुजरात दंगों पर लंबे समय तक चुप रहने वाले नीतीश कुमार ने गत लोस चुनाव में भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने पर उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया उनकी जिद के चलते जदयू आैर भाजपा के गठबंधन टूट गया।
हां भाजपा से समर्थन वापस लेने के बावजूद वह अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। आम चुनाव में प्रचंड बहुमत से नरेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया तथा अपने विश्वासपात्र जीतन मांझी को प्रदेश की बागडोर थमा दी। नीतीश कुमार के सामने इस समय दो दो बड़ी परेशानी हैं एक तो भाजपा की अगुआई में सवर्ण लामबंद हो रहे हैं वहीं जीतन मांझी उनके लिए दिक्कत बनते जा रहे हैं। वैस राजनीति आैर युद्ध में सब कुछ जायज है। सियासत में कब कौन सा दांव चल दे जाए कहा नहीं जा सकता।
जतीन मांझी ने भी यही किया, मौके की नजाकत को समझते हुए उन्होंने दलितों को रिझाने के लिए वह काम शुरू कर दिया, जिसे कभी लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार करते थे। वह भी सवर्णांे के खिलाफ मुखर होने लगे। शुरू में तो उनकी बयानबाजी को हल्के में लिया जा रहा था पर धीरे-धीरे असली राजनीतिक खेल समझ में आने लगा। वह एक रणनीति के तहत दलितों को आकर्षित करने वाली बयानबाजी कर रहे हैं। राजनीति देखिए कि अक्टूबर में होने जा रहे विधानभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का विजयी रथ रोकने के लिए लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने की ठानी तथा देश में सपा, जदयू, राजद, इनेलो को एक सूत्र में पिरोकर जनता परिवार को संगठित करने का बीड़ा उठाया, तो मांझी ने अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया।
जतीन मांझी ने भी यही किया, मौके की नजाकत को समझते हुए उन्होंने दलितों को रिझाने के लिए वह काम शुरू कर दिया, जिसे कभी लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार करते थे। वह भी सवर्णांे के खिलाफ मुखर होने लगे। शुरू में तो उनकी बयानबाजी को हल्के में लिया जा रहा था पर धीरे-धीरे असली राजनीतिक खेल समझ में आने लगा। वह एक रणनीति के तहत दलितों को आकर्षित करने वाली बयानबाजी कर रहे हैं। राजनीति देखिए कि अक्टूबर में होने जा रहे विधानभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का विजयी रथ रोकने के लिए लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने की ठानी तथा देश में सपा, जदयू, राजद, इनेलो को एक सूत्र में पिरोकर जनता परिवार को संगठित करने का बीड़ा उठाया, तो मांझी ने अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया।
उधर लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार जनता परिवार को संगठित करने की रणनीति में मशगूल थे, इधर बिहार में मांझी ने एक आईपीएस को सुरक्षा अधिकारी तथा पटना का कमिश्नर एक दलित को बना दिया। साथ ही दलित व अनुसूचित जन जाति के लगभग 200 आईएएस, आईपीएस आैर बिहार राज्य सिविल सेवा के अफसरों के साथ एक सीक्रेट मीटिंग कर राजनीतिक हल्कों में बैचेनी पैदा कर दी। जब उनसे इस मीटिंग के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह तो नीतीश कुमार के पदचिह्नों पर चल रहे हैं। सीक्रेट मीटिंग के लिए जब उनसे कोई नहीं पूछता था तो उन्हें क्यों परेशान किया जा रहा है ? उन्हें पद से हटाने की बात पर उन्होंने कहा कि वह कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने दलित कार्ड खेलते हुए बताया कि अफसरों ने उनसे शिकायत की कि जातिगत कारणों के चलते प्रमोशन आैर अन्य मामलों में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। मांझी के अनुसार अधिकारियों का कहना था कि दलित होने के कारण कई बार उन्हें फंसा दिया जाता है जबकि वैसे ही मामलों में अन्य लोग बरी हो जाते हैं। 22 फीसद दलितों में अपनी छवि निखारने के लिए उन्होंने गत सप्ताह 25 करोड़ की लागत से बीआर अंबेडकर फाउंडेशन की स्थापना की जो दलित आैर महादलित स्कॉलर्स को अध्ययन आैर शोध में मदद करेगा। इसके अलावा हाल ही में उन्होंने गया आैर बेतिया में दलितों का आह्वान किया कि अगला मुख्यमंत्री दलित बनाने के लिए जुट जाएं। दरभंगा में भी उन्होंने दलितों को अपने मान-सम्मान व अधिकार के प्रति जागरूक होने का कहा । गया में भी उन्होंने एक सभा के दौरान दलितों को रिझाने की कोशिश की। लोग उन्हें दलित मुख्यमंत्री के रूप में देखे इसके लिए उन्होंने कहा कि वह अपने रणकौशल से यह साबित कर देना चाहते हैं कि एक महादलित भी बेहतर तरीके से सरकार चला सकता है।
कहा जा रहा है कि 18 जनवरी को बिहार में होने जा रही बड़ी रैली में नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद बड़ा ऐलान कर सकते हैं। चर्चा यह भी है कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री आैर लालू प्रसाद की पुत्री मीसा यादव उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हो सकती है। इस बात की जानकारी मांझी को भी है इसलिए वह नीतीश कुमार से नाराज हैं आैर पार्टी के दलित आैर पिछड़े नेताओं को अपने साथ लामबंद कर रहे हैं। भले ही वह नीतीश कुमार को अपना नेता मानते हों।
कहा जा रहा है कि 18 जनवरी को बिहार में होने जा रही बड़ी रैली में नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद बड़ा ऐलान कर सकते हैं। चर्चा यह भी है कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री आैर लालू प्रसाद की पुत्री मीसा यादव उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हो सकती है। इस बात की जानकारी मांझी को भी है इसलिए वह नीतीश कुमार से नाराज हैं आैर पार्टी के दलित आैर पिछड़े नेताओं को अपने साथ लामबंद कर रहे हैं। भले ही वह नीतीश कुमार को अपना नेता मानते हों।
भले ही वह यह कह रहे हैं कि जनता परिवार से नीतीश कुमार के नाम वह मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तावित करेंगे। भले ही वह देवी देवताओं से ज्यादा नीतीश कुमार को मानने की बात कर रहे हों पर नीतीश कुमार के अधिकारियों को इधर से उधर कर उन्होंने नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। नीतीश कुमार किसी भी तरह से उन्हें पद से हटाना चाहते हैं पर दलित वोटबैंक नाराज होने का खतरा मोल लेने को वह तैयार नहीं। मेरा भी यह मानना है कि राजनीतिक हल्कों में किसी भी तरह की चर्चा हो पर हाल की राजनीतिक माहौल को देखते हुए नीतीश कुमार मांझी को नहीं छेड़ंगे। यह बात उन्होंने कह भी दी है कि मांझी मुख्यमंत्री बने रहेंगे। इस राजनीतिक माहौल में भाजपा नेता गिरीराज सिंह का बयान भी महत्वपूर्ण है।
गिरीराज सिंह ने कहा कि मांझी को हटाने का ठीकरा नीतीश कुमार लालू प्रसाद के सिर तथा लालू प्रसाद नीतीश कुमार के सिरे फोड़ना चाहते हैं। ऐसे में उन्होंने मांझी के साथ गलत होने पर भाजपा उनके साथ होगी अपना दांव चल दिया है।