Monday, 25 November 2013

डा. राम मनोहर लोहिया को क्यों नहीं मिला भारत रत्न ?

     किर्केटर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलने के बाद देश में एक बहस छिड़ गई है। कोई हाकी के जादूगर ध्यान चंद के लिए पैरवी कर रहा है तो कोई पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के लिए। ऐसे भी लोग हैं जो काफी नाम गिना रहे हैं। ऐसे में एक सवाल पैदा होता है कि देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कितने क्रांतिकारियों को अब तक भारत रत्न मिला है ?
      दबे-कुचलों और पिछड़ों के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष करने वाले डा. राम मनोहर लोहिया को अब तक इस सम्मान से सम्मानित क्यों नहीं किया गया ? देश में राम मनोहर लोहिया ऐसा नाम है जो जिंदगी भर व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे। कहा जाता है कि अन्याय का विरोध करने वाला उनसे बड़ा नेता देश में कोई नहीं हुआ है। उनकी कार्यशैली इतनी उच्च कोटि की थी कि कई बार तो उनका कद महात्मा गांधी को चुनौती देने लगता था।
      सचिन तेंदुलकर की बात की जाए तो खेल में उनकी लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त है कि उन्हें उच्च सम्मान से सम्मानित किया ही जाना चाहिए पर हमें यह भी देखना होगा कि वह न केवल पैसों के लिए विज्ञापन करते हैं बल्कि खिलाड़ी के लिए बिकाऊ मानी जाने वाली किर्केट प्रतियोगिता आईपीएल में भी खेलते हैं। ध्यानचंद देशभक्ति के साथ हाकी खेलते थे। उन्होंने कई बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया, अपने देश से खेलने के लिए जर्मनी के शासक हिटलर का उनकी सेना में जनरल का ऑफर भी ध्यानचंद ने ठुकरा दिया था। खेल जगत में यदि किसी का भारत रत्न बनता है तो वह ध्यान चंद हैं, पर उन्होंने यह सब सेना में नोकरी करते हुए किया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई ने देश के लिए बहुत कुछ किया विपक्ष में भी उनकी बात सुनी जाती थी पर उन पर अंग्रेजों के लिए मुखबरी करने का भी आरोप लगा था। इन सबमे डा. लोहिया ऐसा नाम है जो जिंदगी भर देश व समाज के लिए लड़ते रहे। उनको न तो पद का लालच था और न ही उन पर कोई दाग लग सका।
    हमें यह भी देखना होगा कि जब हमारे देश में समाजवाद की बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है।  वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रुपए कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे थे।
     आजादी की लड़ाई में लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण थे इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोहिया की गिरफ्तारी के बाद गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा सकता। उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। वह लोहिया ही थे जिन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की थी। लोहिया से अंग्रेज सरकार इतनी घबराती थी कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गिरफ्तार हुए गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो लोहिया नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग बुझाते रहे।
       लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए रियासतों को खत्म करने का पूरा श्रेय हम लोग भले ही सरदार पटेल को देते रहे हों पर आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी नेता भी चला रहे थे। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। वह लोहिया ही थे जो जनविरोधी नीतियों को लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ खड़े हो गए थे। उनकी तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही। वह जनता के लिए हर तंत्र से लड़ते रहे यही कारण था कि देश के आजाद होने के बाद भी वह कई बार गिरफ्तार किये गए।

Friday, 15 November 2013

समस्याओं की गिरफ्त में देश

  1.   जातिवाद का जहर
    देश में वोटबैंक
    की राजनीति के चलते जातिवाद का जो जहर घोला  जा रहा है, उसे खत्म करना बहुत जरूरी हो गया है। भ्रष्टाचार व महंगाई पर अंकुश लगना जरूरी है। आज के दौर फिर से समाजवादी आंदोलन को तेज करने की जरूरत है। वोटबैंक की सियासत घातक रूप लेती जा रही है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि साम्प्रदायिक दंगे चुनाव के समय ही क्यों होते हैं ?
  2. भंवर में जनता
    भले ही राजनेता विकास के दावे करते न थक रहे हों, भले ही आम आदमी के लिए तरह-तरह की योजनाएं लाई जा
    रही हों पर देश के जो हालात हैं वह संतोषजनक नहीं हैं। एक  ओर जहां लोग महंगाई से परेशान हैं वहीं दूसरी ओर मंदी के नाम पर बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो जा रही है।  बाजार में महंगाई की मार तो ऑफिस में मंदी की। देश के जनप्रतिनिधि कारपोरेट प्रतिनिधि बनते जा  रहे हैं। 90 फीसद योजनाएं कारपोरेट घरानों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। जिसे जहां मौका मिल रहा है वह देश को लूटने में लगा है। हर कोई देश से सब कुछ लेना चाहता है पर देश को कुछ नहीं देना चाहता। अब समय आ गया है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए आम आदमी सड़क पर उतरे, जब-तक देश की व्यवस्था अच्छे लोगों के हाथ में नहीं आएगी तब-तक देश का भला होने वाला नहीं है। 
  3.  भ्रष्टाचार की मार : आज के बदलते परिवेश में जहां देश को चलाने वाले लोग भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं वहीं आम आदमी भी स्वार्थी होता जा रहा है। आदमी की सोच अपने तक सिमट कर  गई है। इसी संकुचित सोच की वजह से ही देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद व तरह-तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। हम भले ही व्यवस्था को दोषी ठहरा देते हों पर कहीं न कहीं कमी हम लोगों में भी है। त्याग-बलिदान की भावना लोगों से खत्म होती जा रही है। यही सब वजह है कि मुट्ठी भर लोगों ने व्यवस्था ऐसे कब्जा रक्खी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक कर रह जा रहा है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं। देश की व्यवस्था यह है कि आम लोगों के लिए अर्थव्यवस्था गड़बड़ाने की बात की जा रही है और देश में चुनाव के नाम पर जनता का पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। मेरा मानना है कि अब आम आदमी देश व समाज के लिए आगे आये। इस भ्रष्ट दौर में भी आम आदमी नहीं जागा तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
  4. आरक्षण की राजनीति
    आजकल जाटों  पर  कांग्रेस का प्रेम अचानक उमड़ आया है। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बदले जातीय समीकरण के चलते केंद्र सरकार जाटों को केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। 1949 में जातीय विषमताओं को दूर करने के लिए दस साल तक की गई आरक्षण की व्यवस्था अब जातीय विषमता को और बढ़ा रही  है। पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू, उनके बाद में उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने आरक्षण की समय सीमा बढ़ाकर इसे वोटबैंक का रूप दिया।  रही-सही कसर 1990 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर पूरी कर दी। 60 के दशक में नेहरू को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण और दलित गठजोड़ की काट के लिए डा. राम  मनोहर लोहिया के बनाये गए पिछड़ों के गठजोड़ को आजकल आरक्षण का रूप दे दिया गया है। क्या गरीब दलितों व पिछड़ों में ही हैं ? क्या वास्तव में ही गरीब लोगों को आरक्षण का फायदा मिल रहा है ? पढ़ाई के बाद नौकरी और फिर प्रमोशन में भी आरक्षण, क्या यह देश के विकास में बाधक नहीं है ? क्या आरक्षण के चलते प्रतिभाओं का दमन नहीं हो रहा है ? क्या आरक्षण देश को विघटन की ओर नहीं ले जा रहा है ? आखिर आरक्षण के नाम पर वोटबैंक की राजनीति कब तक होती रहेगी ? 
  5. समस्याओं से सामना
    भले ही देश भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद, जातिवाद, गरीबी समेत कई समस्याओं से जूझ रहा हो पर लोकसभा चुनाव सांप्रदायिक
    ता और धर्मनिरपेक्ष मुद्दे पर लड़ा रहा है। जब ये दल चुनाव प्रचार में ही बुनियादी मुद्दे नहीं उठा  रहे हैं तो सरकार बनाने के बाद उन पर क्या काम करेंगे। हर दल जाति-धर्म के आधार वोट हथियाने की योजना बना रहा है। तो क्या यह माना जाए कि देश में जन नेता कोई नहीं है ?
  6. समाजवादियों का संघर्ष
    इतिहास गवाह है कि जब-जब देश पर विपदा आई है तब-तब समाजवादियों ने मोर्चा संभाला है। देश की आजादी की लड़ाई में सरदार भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, डा. राममनोहर लोहिया ने। देश के आजाद होने के बाद लोहिया के अलावा, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह ने। इन नेताओं ने देश को लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे समाजवादी नेता दिए। आज के दौर में समाजवाद पर उठ रही उंगली को लेकर गंभीर मंथन की जरूरत है। आज के समाजवादी नेताओं को आत्ममंथन की जरूरत है कि क्या ये नेता वास्तव में असली समाजवादी की भूमिका निभा रहे हैं या फिर विचारधारा से भटक गए हैं ?