पहले दिल्ली और अब उड़ीसा में इंसानियत को झकझोर देने वाली खबरें पढ़ने को मिली। खबरें पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे कि शासन-प्रशासन में बैठे लोग तो जैसे न कभी मरेंगे और न ही कभी उन्हें कोई परेशानी होगी। जैसे ये लोग तो पैसा खाकर-खाकर हमेशा के लिए अमर हो गए हैं। ये तो मानसिकता नेताओं व् नॉकरशाह की है पर उस जनता की क्या मानसिकता है जो हर समय व्यवस्था पर उंगली उठाती रहती है।
दिल्ली में ऑटो की चपेट में आया राहगीर घायल होकर तड़पता रहा और न तो उस ऑटो वाले ने उसे अस्पताल पहुंचाया जिसने उसे टक्कर मारी और न ही अन्य किसी व्यक्ति ने। हद तो तब हो गई जब एक व्यक्ति उसका पर्स और मोबाईल भी चोरी कर ले गया। उड़ीसा की खबरें तो इससे भी अधिक झकझोरकर रख देने वाली हैं। एक खबर में एक गरीब व्यक्ति एम्बुलेंस न मिलने की वजह से अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर डालकर अपने घर की ओर चल दिया तथा दस किलोमीटर तक का सफर उसने तय भी कर लिया। एक अन्य खबर में अस्पताल में शव को पोस्टमार्टम तक ले जाने के लिए जब एम्बुलेंस नहीं मिली तो एक कर्मचारी महिला के शव को कमर तक तोड़ देता है।
दिल्ली की खबर को तो मीडिया ने मानवीय संवेदना के हिसाब से दिखाया है पर उड़ीसा की खबरों को मात्र एम्बुलेंस न मिलने की वजह से ऐसा हुआ दर्शाया गया। राजनीतिक दलों की जरा- जरा सी गतिविधियों पर बड़ी-बड़ी संपादकीय लिखने वाले संपादकों को ये खबरें शायद प्रभावित नहीं कर पाईं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि दिन भर में हम लोग भले ही कितने पैसे कमाते हों। कितनी अय्याशी करते फिरते हों। कितने संसाधनों का दोहन करते हों । कितनी संपन्नता की शेखी बखारते हों। अपने बच्चों को कितने बड़े-बड़े स्कूलों में पढ़ा रहे हों समाज में बैठकर कितनी डींगें हांक रहे हों। ये तीन खबर मात्र ही देश और समाज की असलियत बयां कर रहीं हैं।
जो व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर डालकर ले जा रहा था, क्या उसका कोई परिचित या कोई रिश्तेदार उसकी मदद नहीं कर सकता था ? कैसे एक महिला के शव को एक अस्पताल में तोड़ने दिया गया। क्या वहां कोई अन्य कर्मचारी और तीमारदार नहीं था ? इस व्यवस्था के लिए मैं शासन-प्रशासन और अमीरों से ज्यादा आम आदमी दोषी मानता हूँ।
लोकतंत्र में संख्या बल शक्तिशाली माना जाता है। आम आदमी को समझना होगा कि पांच फीसद लोगों ने देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी है कि आम आदमी की दुर्दशा तो हो ही रही है। अब स्थिति यहां तक पहूंच गई है कि आम आदमी के शवों की भी दुर्गतिं की जा रही है। ये सवाल प्रभावशाली लोगों को ही कटघरे में नहीं खड़ा करता है, इससे आम आदमी भी नहीं छुट सकता है। जब गरीब व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को कंधे पर डालकर ले जा रहा था तो कोई आम आदमी उसे नहीं देख रहा था क्या ? महिला के शव को तोड़ने वाला भी तो आम आदमी ही था। गरीब व्यक्ति पैसे कमाने की होड़ में अमीरों जैसा संवेदनहीन होता जा रहा है। यही वजह है कि आदमी तरह-तरह की परेशानियां सिर पर लिए घूम रहा है। हर कोई भाग चला जा रहा है। वह बात दूसरी है कि खुद उसे ही पता नहीं कि वह कहां जा रहा है। प्यार-मोहब्बत, लगाव, संवेदनशीलता, मानवता, भाईचारा जैसे शब्द तो जैसे दिखावटी शब्द बनकर ही रह गए हैं।
लोगों को यह देखना होगा कि हर व्यवस्था समाज पर निर्भर करती है। जिस दिन निजी स्वार्थों को त्यागकर लोग देश और समाज की सोचने लगेंगे, उस दिन न केवल शासन-प्रशासन ठीक हो जायेगा बल्कि समाज की गंदगी भी दूर हो जाएगी। अपनी जिंदगी का फैसला करने का मौका दूसरों को मत दीजिये। जिस दिन व्यक्ति दूसरों की परेशानी को अपने पर रखकर सोचने लगेगा तथा जो दूसरों से जो चाहता है, वह व्यवहार दूसरों से करने लगेगा उस दिन सब कुछ सुधर जाएगा।