Friday, 21 November 2014

ये कैसा समाजवाद है नेताजी ?

    यदि आज कहीं से डॉ. राम मनोहर लोहिया रामपुर शहर को देख रहे होंगे तो निश्चित रूप से वे बहुत दुखी होंगे। वह सोच रहे होंगे कि उन्होंने देश को कैसे समाजवादी नेता दे दिए, जो जनता के दुख-दर्द को भूलकर जनता के खून-पसीने की कमाई फिजूलखर्ची पर उड़ा रहे हैं। जी हां मैं बात कर रहा हूं रामपुर में आजम खां द्वारा शाही अंदाज में मनाए जा रहे सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के जन्म दिन की।
     किसी बीमार प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के मुखिया का शाही अंदाज में जन्मदिन मनाया जाना अपने आप में प्रश्न खड़ा करता है। एक ओर जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने का बकाया भुगतान न होने पर बड़े स्तर पर किसान अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं अपनी बेटियों की शादियां लगातार टाल रहे हैं। गुस्से में गन्ना जला रहे हैं। आत्मदाह का प्रयास कर रहे हैं। आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। रोजगार न मिलने पर बड़े स्तर पर युवा दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर इसी क्षेत्र के एक मंत्री के जिले में सत्तारूढ़ पार्टी के मुखिया का जन्म दिन शाही अंदाज में मनाया जा रहा है। अपने को लोहिया का अनुयायी बताने वाले उनके पुत्र प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पूरे जोश-खरोश के साथ इस जश्न में शामिल हो रहे हैं।
   नेताजी यदि आपको याद हो तो लोहिया जी खाना भी कार्यकर्ताओं के साथ ही खाना पसंद करते थे। शाही अंदाज तो बहुत दूर की बात है। बताया जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव आैर उनके पुत्र मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए लंदन से विक्टोरिया बग्घी मंगाई गई है। ग्यारह किलोमीटर ये दोनों इस बग्गी पर बैठकर जाएंगे। पूरे ग्यारह किलोमीटर तक कालीन बिछाई गई है, जगह-जगह उनके स्वागत की तैयारी है। फूलों की वर्षा इन नेताओं पर होगी। सपा के सभी विधायकों आैर सांसदों को इनके स्वागत में लगाया गया है। रामपुर को दुल्हन की  तरह सजाया गया है। नाच-गाने की पूरी व्यवस्था है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस जश्न में पानी की तरह बहाया जा रहा पैसा आखिरकार आया कहां से ? बात-बात पर किसानों, मजदूरों, व गरीबों की पैरवी करने का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव इस तरह से शाही अंदाज में जन्म दिन मनाकर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं ? या फिर यदि उन्हें खुश करने के लिए आजम खां इतने बड़े स्तर पर फिजूलखर्ची कर रहे हैं तो उन्होंने प्रदेश के गरीबों का हवाला देते हुए इस फिजूलखर्ची को रोका क्यों नहीं ? यह मान भी लिया जाए कि यह खर्च मौलाना अली जौहर विवि उठा रहा है तो क्यों उठा रहा है ? क्या यह पैसा गरीब बच्चों का भविष्य संवारने के लिए खर्च नहीं हो सकता था। या यह माना जाए कि आजम खां अपनी पत्नी को राज्यसभा में भेजने का नेताजी का अहसान इस रूप में उतार रहे हैं। मुलायम सिंह यादव के ग्लैमर में डूबने के पीछे कभी उनके सारथी रहे अमर सिंह का नाम लिया जाता रहा है आैर ये ही आजम खां इसका खुला विरोध करते रहे हैं। अब इस शाही जश्न में ये ताम-झाम तो खुद आजम खां ही कर रहे हैं आैर वह अपने को खांटी समाजवादी भी मानते हैं।
     आज नेताजी के समाजवाद का यह रूप देखकर मैं यह लेख इसलिए भी लिख रहा हूं कि मैं खुद राजनीतिक रूप से मैं लोहिया जी का अनुयायी हूं। मैंने डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये, चौधरी चरण सिंह पर काफी अध्ययन किया है। कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव लोहिया जी के संघर्ष आैर नीतियों से बहुत प्रभावित थे। चौधरी चरण सिंह ने खुद आपको राजनीतिक रूप से गढ़ा था। आपको चौधरी चरण सिंह का असली वारिश माना जाता है। अब जब आपको पूरी तरह से देश व समाज के लिए समर्पित हो जाना चाहिए था तब आप चाटुकारों से घिरकर विरोधियों को बोलने का मौका दे रहे हैं। मैंने पढ़ा है सुना है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया जी ने दो-कुर्ते पाजामे में अपनी पूरी जिंदगी काट दी आैर आज के कितने समाजवादी नेता ऐसे हैं जो उन्हीं की ही देन हैं।
    भले ही लोहिया जी ने शादी न की हो पर उन्होंने पूरे राजनीतिक जीवन में अपने किसी परिजन को सटाया तक नहीं। चौधरी चरण सिंह की 27 बीघा जमीन समाजसेवा में बिक गई थी। आचार्य नरेंद्र देव का आैर लोक नायक जयप्रकाश का संघर्ष भी सर्वविदित है। क्या इनमें से किस समाजवादी नेता ने अपना जन्मदिन इस तरह से शाही अंदाज में मनाया था ? आपको, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, शरद यादव, राम विलास पासवान को इन समाजवादियों ने तैयार किया। आज की तारीख में दूसरी लाइन के समाजवादी नेता अखिलेश यादव, डिंपल यादव, धर्मेंद्र यादव, अक्षय यादव, धर्मेंद्र यादव, चिराग पासवान, मीसा यादव, जयंत चौधरी, दुष्यंत चौटाला, उमर अब्दुल्ला माने जाते हैं। ये सब वंशवाद की देन हैं। क्या इन नेताओं के बलबूते जेपी आंदालन जैसा आंदोलन किया जा सकता है ?

Saturday, 8 November 2014

आखिर कब तक पिसते रहेंगे किसान

    भले ही केंद्र सरकार अच्छे दिन के कितने दावे करती फिरे। भले ही प्रधानमंत्री अमरीका तक भारत के झंडे गाड़ने की बात करें। भले ही महात्मा गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत का अभियान छेड़ा जाए। भले ही पटेल जयंती पर राष्ट्रीय एकता की बात की जाए। भले ही नेहरू जयंती पर बाल स्वच्छता कार्यक्रम की बात कही जा रही हो। भले ही केेंद्र के साथ ही राज्य सरकारें अपनी उपलब्धियों पर एेंठती फिर रही हों पर जमीनी हकीकत यह है कि तमाम योजनाओं के बावजूद देश के किसानों का कोई भला होता नहीं दिख रहा है।
     रात दिन मेहनत करने के बाद भी फसल की लागत नहीं निकल पा रही है। तमाम दावों के बावजूद किसानों की आत्महत्याओं में कमी नहीं हो पा रही है। अभी तक तो आंध्र प्रदेश, विदर्भ, बुंदेलखंड में ही आत्महत्या की बातें ज्यादा सामने आती थीं पर आजकल तो खेती के मामले में सम्पन्न क्षेत्र माने जाने वाले वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश आैर हरियाणा में भी इस तरह के मामले देखने को मिल रहे हैं। गत दिनों मेरठ के एक किसान ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि एक निजी चीनी मिल पर तीन लाख बकाया भुगतान न होने की वजह से वह अपनी बहन के कैंसर का इलाज नहीं करवा पा रहा था। हरियाणा के करनाल में भी एक किसान ने आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या कर ली। किसानों का भला करने वाली भाजपा सरकार में धान गत साल से भी कम दाम पर खरीदी जा रही है।
     गन्ना किसानों की हालत तो कुछ ज्यादा ही खराब है। तमाम आंदोलनों के बावजूद किसानों का कई साल का बकाया भुगतान नहीं हो पा रहा है। देश की व्यवस्था देखिए कि चीनी मिलों के यूपीए सरकार से 6600 करोड़ आैर राजग से 2400 करोड़ बयाज मुक्त ऋण लेने के बावजूद किसानों का भुगतान तक नहीं किया गया है। उत्तर प्रदेश में तो किसान दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं,  एक ओर उनका बकाया भुगतान नहीं हो पा रहा है तो दूसरी ओर गन्ना तैयार होने के बावजूद पेराई सत्र अभी तक शुरू नहीं हो पाया है। स्थिति यह है कि अभी तक तो गन्ना मूल्य को लेकर ही कोई हल नहीं निकला है।
    योजनाओं के नाम पर किसानों को कैसे बेवकूफ मनाया जाता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2008 में यूपीए सरकार में लाई गई कर्ज माफी योजना में कैग के 52,000 करोड़  की गड़बड़ी का खुलासा करने के बावजूद न तो बैंकों का कुछ बिगड़ा है आैर न ही गलत तरीका अपनाकर योजना का लाभ उठाने वालों का। किसान जो ठगे गए उसका तो कोई जवाब किसी के पास है ही नहीं। किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है कि देश का किसान खेती से मुंह मोड़ने लगा है। प्रधानमंत्री भले ही विभिन्न समारोह में किसानों के भले की बात कर रहे हों पर अभी तक किसानों के हित में कोई खास जमीनी कदम नहीं उठाया गया है। अब तक उनकी हर योजना हर काम पूंजीपतियों के इर्द-गिर्द घूमते नजर आ रहे हैं। यह सरकार किसानों की हितैषी है या फिर पूंजीपतियों की यह बात इससे ही समझ में आ जाती है कि लगभग छह लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त सब्सिडी की व्यवस्था कारपोरेट के लिए की जा रही है, जबकि किसानों के लिए आम बजट में मात्र 30 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई है। सरकार की कार्यशैली तो देखिए कि सरकार ने श्रमेव जयते कार्यक्रम शुरू तो किया पर उसमें श्रमिकों को नहीं बल्कि पूंजीपतियों को बुलाया गया था।
     केंद्र सरकार ने फसल विविधीकरण की ओर प्रोत्साहित करने का तर्क देते हुए जिस तरह से राज्य सरकारों को इस साल गेहूं आैर धान पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर बोनस की घोषणा न करने के निर्देश दिए हैं, उसमें भले ही किसानों का हित जुड़ा हो पर तरीका गलत लग रहा है। केंद्र सरकार के इस निर्देश ने न केवल राज्यों सरकारों पर दबाव बनाया है बल्कि किसानों को भी परेशानी में डाल दिया है। इसे केंद्र की चेतावनी ही माना जाएगा कि यदि विकेंद्रित खरीद करने वाले राज्य चावल आैर गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस की घोषणा करते हैं तो केद्र सिर्फ उतने ही अनाज की खरीद के लिए सब्सिडी प्रदान करेगा, जितनी जरूरत सार्वजनिक वितरण प्रणाली आैर लोक कल्याण की योजनाओं के लिए है। केंद्र की इस चेतावनी का उत्तर प्रदेश सरकार पर असर भी पड़ा। उत्तर प्रदेश सरकार ने गत दिनों विधानसभा में एक सवाल के दौरान बताया कि सरकार 1400 रुपए प्रति क्विंटल की दर से किसानों से सीधे गेहूं खरीदेगी आैर उस पर बोनस नहीं देगी। मध्य प्रदेश सरकार तो गेहूं पर प्रति क्विंटल 200 रुपए बोनस दे रही थी। इससे वहां पर खेती का फीसद भी बढ़ा था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि फसलों का विविधिकरण तो जब होगा तब होगा पर किसानों को तो इस साल से ही नुकसान होना शुरू हो गया है। जबकि होना यह चाहिए कि पहले देश के हर क्षेत्र में मिट्टी की जांच हो तथा जहां की मिट्टी जिस फसल के लिए उपजाऊ हो, उस फसल के लिए वहां के किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए आैर उन्हें प्रशिक्षण देकर संसाधन उपलब्ध कराने के बाद धीरे-धीरे फसल का विविधीकरण किया जाए। स्थिति यह है कि एक ओर सरकार 100 स्मार्ट सिटी बनाने की बात कर रही है तो दूसरी ओर जोत का रकबा लगाातार कम हो रहा है।